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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
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जैन-आचारदर्शन में नैतिक-सुखवाद के दोनों पक्ष, अर्थात् सुखों की काम्यता एवं उपयोगिता (लोकहित) समाहित हैं, जिन पर हम यहाँ विचार करेंगे।
जैन-आचारदर्शन में नैतिक-सुखवाद के समर्थक कुछ तथ्य मिलते हैं। महावीर ने कई बार यह कहा कि 'जिससे सुख हो, वह करो।'52 इस कथन के आधार पर यह फलित निकाला जा सकता है कि महावीर नैतिक-सुखवाद के समर्थक थे। यद्यपि हमें यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि सुख शब्द का जो अर्थ महावीर की दृष्टि में था, वह वर्तमान सुख शब्द की व्याख्या से भिन्न था।
एक अन्य दृष्टि से भी जैन-नैतिकताको सुखवादी कहा जा सकता है, क्योंकि जैन नैतिक-आदर्श मोक्ष आत्मा की अनन्त सौख्य की अवस्था है और इस प्रकार जैन-नैतिकता सुख के अनुसरण करने का आदेश देती है। इस अर्थ में भी वह सुखवादी है, यद्यपि यहाँ पर उसका सुख की उपलब्धि का नैतिक-आदर्श भौतिक सुख की उपलब्धि का आदर्श नहीं है, वरन् वह तो परमानन्द की अवस्था की उपलब्धि का आदर्श है।
सामान्य अर्थ में सुख-दुःख सापेक्षशब्द हैं, एक विकल्पात्मक स्थिति है। दु:ख के विपरीत जो है उसकी अनुभूति सुख है, यासुख दुःख का अभाव है। जैन-दर्शन 'निर्वाण' में जिस अनन्त सौख्य की कल्पना करता है, वह निर्विकल्प सुख है। वस्तुत:, जैन-दृष्टि में निर्विकल्प सुख ही वास्तविक सुख है।
सुखवाद के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जैन विचारकों की दृष्टि में 'सुख' शब्द का क्या अर्थ अभिप्रेत है। कठिनाई यह है कि जैनागमों की भाषा प्राकृत है। प्राकृत 'सुह' शब्द के संस्कृत भाषा में 'सुख' और शुभ'-ऐसे दो रूप बनते हैं। दूसरे, जैनागमों में विभिन्न स्थलों पर सुह' भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। यों प्रसंग के अनुकूल अर्थ का निश्चय करने में कोई कठिनाई नहीं होती। __जैनाचार्यों ने 'सुख' दस प्रकार के माने हैं- (1)आरोग्यसुख, (2) दीर्घायुष्यसुख, (3) सम्पत्तिसुख, (4) कामसुख, (5) भोगसुख, (6) सन्तोषसुख, (7) अस्तित्वसुख, (8) शुभभोगसुख, (9) निष्क्रमणसुख और (10) अनाबाधसुख।
सुख के इस वर्गीकरण को जैन-दृष्टि से निम्नस्तरीय और उच्चस्तरीय सुखों के सापेक्ष आधार पर प्रस्तुत किया जाए, तो उसका स्वरूप निम्न होगा- (1) सम्पत्तिसुख, (2) कामसुख, (3) भोगसुख, (4) शुभभोगसुख, (5) आरोग्यसुख, (6) दीर्घायुष्यसुख, (7) सन्तोषसुख, (8) निष्क्रमणसुख, (9) अस्तित्वसुख और (10) अनाबाधसुख।
सम्पत्ति या अर्थ गार्हस्थिक-जीवन के लिए आवश्यक है और सांसारिक-सुखों के लिए कारणभूत होने से उसे 'सुख' कहा गया है। भारतीय-विचारणा में चार पुरुषार्थों में अर्थ को एक पुरुषार्थ मानकर नैतिक-दृष्टि से उसका महत्व अवश्य स्वीकार किया गया है,
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