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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
जैन-परम्परा में भी जिनवचनों का पालन करना नैतिक-जीवन का आवश्यक अंग माना गया है। सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रों की आज्ञाओं का पालन करना प्रत्येक गृहस्थ एवं श्रमण के लिए आवश्यक है। आचारांगसूत्र में महावीर कहते हैं कि मेरी आज्ञाओं का पालन धर्म है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में भी विधानवाद का स्थान है। जैनआचारदर्शन वीतराग पुरुषों अथवा तीर्थंकरों के आदेशों को नैतिक-जीवन का प्रतिमान स्वीकार करता है।
फिर भी, इतना स्पष्ट है कि यदि नैतिकता के प्रतिमान के रूप में बाह्य-आदेशों को ही सब कुछ मान लिया गया, तो नैतिकता आन्तरिक-वस्तु नहीं रह जाएगी। बाह्य-आदेश 'करना चाहिए' के स्थान पर करना पड़ेगा' की प्रकृति का होता है। वह बहुत-कुछ पुरस्कार की आशा एवं दण्ड के भय पर निर्भर होता है, अत: उसे पूर्ण रूप से नैतिकता का प्रतिमान स्वीकार नहीं किया जा सकता। नैतिक-जीवन में ईश्वर, बुद्ध या जिन के वचन मार्गदर्शक हो सकते हैं, लेकिन कर्त्तव्य की भावना का उद्भव तो हमारे अन्दर से ही होना चाहिए। यदि अमनस्क-भाव से नैतिक आदेशों का पालन किया भी जाता है, तो उससे कोई व्यक्ति नैतिक नहीं बन जाता। नैतिकता अन्तरात्मा की वस्तु है। उसे बाह्य-विधानों के आश्रित नहीं माना जा सकता। 2. आन्तरिक-विधानवाद
आन्तरिक याअन्तरात्मक-विधानवाद के अनुसार शुभ और अशुभ का निर्णायकतत्त्व व्यक्ति की अन्तरात्मा है। अपनी अन्तरात्मा के अनुसार आचरण करना शुभ और उसके प्रतिकूल आचरण करना अशुभ माना गया है। पाश्चात्य-परम्परा में अन्तरात्मकविधानवाद के प्रतिपादकों में हेनरी मोर, रल्फ कडवर्थ, सैमुअल क्लार्क, विलियमवुलेस्टन, शेफ्ट्सबरी, हचिसन और बटलर की एक लम्बी परम्परा है। समकालीन चिन्तकों में एडवर्ड वेस्टरमार्क, अर्थर केनिआन रोजर्स और फ्रेंक चेपमेन शार्प प्रमुख हैं।27 भारतीयपरम्परा में आन्तरिक-विधानवाद का समर्थन मनु के युग से ही मिलता है। मनु ने 'मन:पूतं समाचरेत' कहकर इसी अन्तरात्मक-विधानवाद का समर्थन किया है। महाभारत के अनुशासनपर्व में भी कहा गया है, 'सुख-दु:ख, प्रिय-अप्रिय, दान और त्याग, सभी में अपनी आत्मा को प्रमाण मानकर ही व्यवहार करना चाहिए।'
आन्तरिक (अन्तरात्मक) विधानवाद की यह धारणा जैन और बौद्ध-परम्परा में भी स्वीकृत रही है, लेकिन जैन और बौद्ध-परम्पराएँ इस बात को स्पष्ट कर देती हैं कि अन्तरात्मा के आदेश को उसी समय प्रामाणिक माना जाता है, जब वह राग और द्वेष से ऊपर उठकर कोई निर्णय ले। अन्तरात्मा को नैतिकता का प्रतिमान स्वीकार करने के लिए यह शर्त आवश्यक है, अन्यथा राग-द्वेष से युक्त वासनामय आत्मा के आदेशों को भी नैतिक
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