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नैतिक-निर्णय का स्वरूप एवं विषय
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बन्दूक है। किसी प्रकार की असावधानी से वह चल जाती है और किसी व्यक्ति की हत्या हो जाती है। इस प्रसंग पर सम्भवत: कांट कहेंगे कि उसका संकल्प हत्या करने का नहीं था, अत: वह दोषी नहीं है। मिल भी कहेंगे कि उसका हत्या करने का कोई प्रयोजन नहीं था, अत: वह दोषी नहीं है।मार्टिन्यू का प्रेरक भी वहाँ अप्रभावशाली है, अत: उसके अनुसार भी वह दोषी नहीं होगा, लेकिन जैन-विचारणा और मैकेंजी उसे दोषी मानेंगे। जैन-विचारणा कहेगी कि वह व्यक्ति दो आधारों पर दोषी है- (1) असावधानी (प्रमाद) तथा (2) अविरति। पहले तो उसे हिंसक-शस्त्र का संग्रह ही नहीं करना था और यदि किया भी था, तो सावधान रहना चाहिए था। जैन-विचारणा के अनुसार, चारित्र के भावात्मक और निषेधात्मक- ऐसे दो पक्ष हैं। भावात्मक-दृष्टि में वह जाग्रति या अप्रमत्तता है और निषेधात्मक-दृष्टि में वह विरति (संयम) है। नैतिक-जीवन एक अनुशासित जीवन है। संयम
और अप्रमाद (अनालस्य) अनुशासित जीवन का आधार है, अत: साधक जब भी इनसे दूर होता है, बन्धन की दिशा में बढ़ जाता है। जैन-विचारणा तो यहाँ तक कहती है कि यदि साधक असावधान है, प्रमत्त है, तो फिर बाह्य रूप में हिंसा न करते हुए भी वह हिंसा का दोषी है। यदि हिंसा या चोरी नहीं करने के दृढ़संकल्प के द्वारा वह उन कार्यों से विरत नहीं होता है, तो भी वह हिंसा या चोरी का भागी है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-विचारणा में नैतिक-निर्णय के विषय को लेकर जो विभिन्न दृष्टिकोण हैं, उन सभी का महत्व स्वीकार किया गया है। यद्यपि जैन-विचारक न केवल उन्हें स्वीकार करते हैं, वरन अपनी अनेकान्तवादी-दृष्टि के आधार पर उनमें समन्वय भी करते हैं। उनकी दृष्टि में कर्म के इन विभिन्न पक्षों पर समवेत रूप से विचार करके ही नैतिक-निर्णय देना सम्भव है।
सन्दर्भग्रंथ1. नीतिशास्त्र, पृ. 43.
देखिए- नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ.72-74. नीतिशास्त्र, पृ. 49.
A Manual of Ethics, p. 50. 5. यूटिलिटेरियनिज्म, पृ. 27; उद्धृत-नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 75.
वही. वही, पृ.76.
धम्मपद, 1-2. 9. मज्झिमनिकाय, 56.
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