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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
सम्यग्दृष्टि, (2) विरति, (3) अकषाय, (4) अप्रमाद, और (5) अयोग । पाश्चात्यविचारणा के (1) संकल्प, (2) अभिप्रेरक, (3) चरित्र और (4) अभिप्राय अपने लाक्षणिक अर्थों में निम्न प्रकार से समानार्थक माने जा सकते हैं -
1. संकल्प
1. दृष्टि
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2. प्रेरक
3. चरित्र
4. अभिप्राय
2. कषाय (वासना)
3. अविरति
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- मिथ्यादृष्टि
सम्यग्दृष्टि
विरति
अप्रमाद }
सच्चरित्र
दुश्चरित्र
4. प्रमाद
5. योग (शारीरिक, वाचिक और मानसिक-क्रियाएँ)
पाश्यात्य-1 य- विचारणा के (1) संकल्प, (2) प्रेरक, (3) चरित्र और (4) अभिप्राय क्रमश: जैन- दर्शन के आस्रव एवं संवर के पाँच मूल हेतुओं के पर्यायवाची हैं और शुभाशुभ निर्णय इन पाँचों पर ही होता है, अत: यह मानना पड़ेगा कि जैन-दर्शन में पाश्चात्यविचारणा के ये चारों दृष्टिकोण अविरोधपूर्वक समन्वित हैं ।
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उपर्युक्त चार मतवादों (दृष्टिकोणों) की यदि भारतीय - आचारदर्शनों के साथ तुलना करें, तो कह सकते हैं कि गीता का दृष्टिकोण कांट के संकल्पवाद के तथा बौद्ध दर्शन का दृष्टिकोण मार्टिन्यू के अभिप्रेरकवाद के अधिक निकट है, क्योंकि गीता नैतिक निर्णय का विषय कर्त्ता की व्यवसायात्मिका बुद्धि को मानती है, जो कांट के संकल्प के निकट ही नहीं, वरन् समानार्थक भी है। इसी प्रकार, बौद्ध-विचारणा में शुभाशुभ के निर्णय का आधार प्राणी की 'वासना' (तृष्णा) को माना गया है। तृष्णा ही समस्त प्रवृत्तियों की प्रेरक है, अतः कहा जा सकता है कि बौद्ध-दृष्टिकोण मार्टिन्यू के अधिक निकट है। जहाँ तक जैन- दृष्टिकोण का प्रश्न है, उसे किसी सीमा तक मैकेंजी के चरित्रवाद के निकट माना जा सकता है, क्योंकि 'चरित्र' शब्द में जो अर्थविस्तार है, वह समन्वयवादी जैन- दृष्टिकोण के अनुकूल है। फिर भी, इन आचारदर्शनों को किसी एक मतवाद के साथ बाँध देना संगत नहीं होगा, क्योंकि उनमें सभी विचारणाओं के तथ्य खोजे जा सकते हैं। गीता में काम और क्रोध के अभिप्रेरक और बौद्ध-विचारणा में अविद्या नैतिक निर्णय के महत्वपूर्ण विषय हैं। वास्तविकता यह है कि भारतीय विचार दृष्टि समस्या के किसी एक पहलू को अन्य से अलग कर उस पर विचार नहीं करती, वरन् सम्पूर्ण समस्या का विभिन्न पहलुओं सहित विचार करती है। यही कारण है कि जब बौद्ध-विचारणा ने बन्धन के कारण पर विचार किया, तो अविद्या, तृष्णा आदि में से किसी एक को कारण नहीं माना, वरन् प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में
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