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नैतिक-निर्णय का स्वरूप एवं विषय
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नैतिक-निर्णय का विषय माना जा सकता है, जब तक कर्त्ता की मनोदशा को यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित करता है, लेकिन आचरण का मानसिक-पक्ष भी इतना अधिक व्यापक है कि विचारकों ने उसके एक-एक पहलू को लेकर नैतिक-निर्णय के विषय की दृष्टि से गहराई से विचार किया है। इसके परिणामस्वरूप चार दृष्टिकोण सामने आए।
1. मिल का कहना है कि कार्य की नैतिकता पूर्णत: अभिप्राय' अर्थात् कर्ता जो कुछ करना चाहता है, उस पर निर्भर है। अभिप्राय से मिल का तात्पर्य कार्य के उस रूप से है, जिस रूप में कर्ता उसे करना चाहता है। मान लीजिए, कोई व्यक्ति किसी खास व्यक्ति की हत्या करने के लिए उस सवारी गाड़ी को उलटना चाहता है, जिसमें वह व्यक्ति बैठा है। उसका प्रयास सफल होता है और उस एक व्यक्ति के साथ-साथ और भी बहुत से यात्री मारे जाते हैं। इस घटना में मिल के अनुसार, उस व्यक्ति को केवल एक व्यक्ति की हत्याका दोषी नमानकर, सभी की हत्या का दोषी माना जाएगा, क्योंकि वह गाड़ी को ही उलटना चाहता है।
___2. कांट के अनुसार, नैतिक-निर्णय का विषय कर्ता का संकल्प है। यदि उपर्युक्त घटना के सम्बन्ध में विचार करें, तो कांट के अनुसार वह व्यक्ति केवल उस व्यक्ति-विशेष की हत्या का दोषी होगा, न कि सभी की हत्या का, क्योंकि उसे केवल उसी व्यक्ति की मृत्यु अपेक्षित थी।
___ 3. मार्टिन्यू के अनुसार, नैतिक-निर्णय का विषय वह प्रेरक है, जिससे प्रेरित होकर कर्ता ने यह कार्य किया है। ऊपर के दृष्टान्त के सन्दर्भ में मार्टिन्यू कहेंगे कि यदिकर्ता ने इसकी हत्या विशेष स्वार्थ से प्रेरित होकर की, तो वह दोषी होगा; लेकिन उसने लोकहित से प्रेरित होकर हत्या की, तो वह निर्दोष ही माना जाएगा।
4. मैकेंजी के अनुसार, कर्ता का चरित्र ही नैतिक-निर्णय का विषय है। मान लीजिए, कोई व्यक्ति नशे में गोली चला देता है और उससे किसी की हत्या हो जाती है, तो सम्भव है कि कांट और मार्टिन्यूकी दृष्टि में वह निर्दोष हो, लेकिन मैकेंजी की दृष्टि में तो वह अपने दोषपूर्ण चरित्र के कारण दोषी ही माना जाएगा।
विचारकों ने इन चारों दृष्टिकोणों की छानबीन करने पर उन्हें एकांगी एवं दोषपूर्ण पाया है, किन्तु जैन-विचारणा इन चारों विरोधी दृष्टिकोणों में समन्वय करके और उनकी एकांगिता दूर करके एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।
जैन-विचारणा में शुभ और अशुभ निकटवर्ती शब्द संवर और आस्रव हैं। हम कह सकते हैं कि जिससे कर्मबन्धन हो, वह अशुभ अर्थात् आस्रव है और जिससे बन्धन नहीं होता, वह शुभ अर्थात् संवर है। जैन-दर्शन में आस्रव के पाँच कारण हैं- (1) मिथ्यादृष्टि, (2) कषाय, (3) अविरति, (4) प्रमाद, और (5) योग। संवर के पाँच कारण हैं - (1)
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