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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
लिखते हैं कि जैन-आचारदर्शन आत्मनिष्ठ नैतिकता पर बल देते हुए भी कार्यों के परिणामों परसमुचित विचार करता है। जैनाचारदर्शन के अनुसार यदि कर्ता केवल अपने उद्देश्य की शुद्धता की ओर ही दृष्टि रखता है और परिणाम के सम्बन्ध में पूर्व से ही विचार नहीं करता है, तो उसका वह कर्म अयतना (अविवेक) और प्रमाद के कारण अशुभ ही माना जाता है
और साधक प्रायश्चित्त का पात्र बनता है। कर्म-परिणाम का पूर्वविवेक जैन-नैतिकता में आवश्यक है।
नैतिक-मूल्यांकन सामाजिक और वैयक्तिक- दोनों दृष्टियों से किया जा सकता है। जब हम सामाजिक-दृष्टि से किसी कर्म का नैतिक-मूल्यांकन करते हैं, तो वह तथ्यपरक दृष्टि से ही होगा और उस अवस्था में कार्य के परिणाम ही नैतिक-निर्णय के विषय होंगे, लेकिन जब वैयक्तिक-दृष्टि से किसी कर्म का नैतिक-मूल्यांकन करते हैं, तो हमें आत्मपरक दृष्टि से करनाहोगा और उस अवस्था में कार्य का उद्देश्य ही नैतिक-निर्णय का विषय होगा। जैनाचारदर्शन की भाषा में कर्मफल के आधार पर कर्म का नैतिक-मूल्यांकन करना व्यवहारदृष्टि है और कर्ता के उद्देश्य के आधार पर कर्मका नैतिक-मूल्यांकन करना निश्चयदृष्टि है। जैनाचारदर्शन के अनुसार दोनों पक्ष अपने-अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं और समग्र आचारदर्शन की दृष्टि से किसी की अवहेलना नहीं की जा सकती। जहाँ तक आत्मनिष्ठ नैतिकता का प्रश्न है, हमें यह स्वीकार करना होगा किनैतिक-निर्णय का विषय कोईआत्मपरक तथ्य ही हो सकता है, वस्तुपरक तथ्य नहीं। आत्मनिष्ठ नैतिकता में नैतिक-निर्णय का विषय कर्ता की मानसिक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य-घटनाएँ नहीं। पाश्चात्य-विचारक मिल को भी अन्त में यह स्वीकार करना पड़ा कि नैतिक-निर्णयका विषयकर्ताका वांछित परिणाम है. न कि बाह्य-रूप में व्यक्त भौतिक-परिणाम, लेकिन जैसे ही हम कर्ता के वांछित परिणाम की बात करते हैं, किसी आन्तरिक तथ्य की ओर संकेत करते हैं और नैतिक-निर्णय के विषय के रूप में बाह्य-घटनाओं या फल के स्थान परकर्म के मानसिक पक्ष को स्वीकार कर लेते हैं। जैसे ही हम कर्म के भौतिक पक्ष से मानसिक पक्ष की ओर बढ़ते हैं, हमारे विवेचन का केन्द्र कर्म के बदले कर्ता बन जाता है। बाह्य घटित भौतिक परिणाम कर्ता के मानस का प्रतिबिम्ब अवश्य है, लेकिन वह सदैव ही उसे यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित नहीं करता, अत: अभ्रान्त नैतिकनिर्णय के लिए कर्म के चैतसिक-पक्ष या कर्ता की मानसिक-अवस्थाओं पर विचार करना आवश्यक है। 6. नैतिक-निर्णय के सन्दर्भ में पाश्चात्य-विचारकों के दृष्टिकोण
जहाँ तक वैयक्तिक-नैतिकता का प्रश्न है, सभी विवेच्य आचारदर्शन यह स्वीकार करते हैं कि नैतिक-निर्णय का विषय कर्ता की मनोदशाएँ हैं। बाह्य परिणाम तभी तक
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