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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
अथवा दुःख - रूप परिणाम शुभशुभता का निर्णायक नहीं हो सकता, वरन् उनके पीछे निहित कर्त्ता का शुभाशुभ प्रयोजन ही किसी कार्य के शुभत्व अथवा अशुभत्व का निश्चय करता है।
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आचार्य विद्यानन्द फलवाद या कर्म के बाह्य परिणाम के आधार पर नैतिकमूल्यांकन करने की वस्तुनिष्ठ पद्धति का विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि किसी दूसरे के हिताहित के आधार पर पुण्य-पाप का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ क्रियाशीलताएँ तो पुण्य-पाप के इस माप से नीचे हैं; जैसे जड़ पदार्थ, और कुछ पुण्य-पाप
इस माप के ऊपर हैं, जैसे अर्हत् । पुण्य पाप के क्षेत्र में क्रियाओं के आधार पर वे ही आते हैं, जो वासनाओं से युक्त हैं। किसी को सुख या दुःख देने मात्र से कोई कार्य पुण्य-पाप नहीं होता, वरन् उस कार्य के पीछे जो वासना है, वही कार्य के शुभाशुभ होने का कारण है । वीतराग के कारण किसी को सुख या दुःख हो सकता है, लेकिन उसके पीछे वासना या प्रयोजन न होने से उसे पुण्य पाप का बन्ध नहीं होता । निष्कर्ष यह है कि जैन- दृष्टि के अनुसार भी कर्ता का प्रयोजन या अभिसन्धि ही शुभाशुभत्व की अनिवार्य शर्त है, न कि मात्र सुख-दुःख के परिणाम ।
श्री यदुनाथ सिन्हा भी यही मानते हैं कि जैन- आचारदर्शन कार्य के परिणाम (फल) से व्यतिरिक्त उसके हेतु की शुद्धता पर ही बल देता है। उसके अनुसार, 'यदि कार्य किसी शुद्ध प्रयोजन से किया गया है, तो वह शुभ ही होगा, चाहे उससे किसी दूसरे को दुःख ही क्यों न पहुँचा हो और यदि अशुभ प्रयोजन से किया गया है, तो अशुभ ही होगा, चाहे परिणाम के रूप में उससे दूसरों को सुख हुआ हो । '20 श्री सुशील कुमार मैत्र कहते हैं, 'शुभाशुभ कर्म का विनिश्चय बाह्य परिणामों पर नहीं, वरन् कर्त्ता के आत्मगत प्रयोजन की प्रकृति के आधार पर करना चाहिए । ' 22
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तुलना - तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हेतुवाद के विषय में जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में अद्भुत साम्य दिखाई देता है। इस सम्बन्ध में धम्मपद, गीता तथा पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के कथन द्रष्टव्य हैं। आचार्य अमृतचन्द कहते हैं, “ रागादि से रहित अप्रमादयुक्त आचरण करते हुए यदि प्राणघात हो जाए, तो वह हिंसा नहीं है। " 22 धम्मपद में कहा है, "माता, पिता, दो क्षत्रिय राजा एवं अनुचरों सहित राष्ट्र का हनन करने पर भी वतृष्ण ब्राह्मण (ज्ञानी) निष्पाप होता है। "23 गीता कहती है, “जिसमें आसक्ति और कर्तृत्वभाव नहीं है, वह इस समग्र लोक को मारकर भी न तो मारता है और न बन्धन में आता है । वस्तुत:, ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है।' ।" 24 यद्यपि भारतीय आचारदर्शनों में इतनी वैचारिक एकरूपता है, तथापि गीता और जैनाचारदर्शन में एक अन्तर यह है कि गीता के अनुसार
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