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________________ निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता 119 खाता है और कण्टकों से अपने को पद-विद्ध कर लेता है। जिस प्रकार चलने के उपक्रम में हमारा काम न तो मात्र सामने देखने से चलता है और न मात्र नीचे देखने से ही, उसी प्रकार नैतिक-प्रगति में हमारा काम न तो म । निरपेक्ष-दृष्टि से चलता है और न मात्र सापेक्ष-दृष्टि से चलता है। निरपेक्षतावाद उस स्थिति की उपेक्षा कर देता है, जिसमें व्यक्ति खड़ा है, जबकि सापेक्षतावाद उस आदर्श या साध्य की उपेक्षा करता है, जो कि गन्तव्य है। इसी प्रकार, निरपेक्षतावाद सामाजिक-नीति को उपेक्षा कर मात वैयक्तिक-नीति पर बल देता है, किन्तु व्यक्ति समाजनिरपेक्ष नहीं हो सकता। पुन:, निरपेक्षतावादी-नीति में साध्य की सिद्धि ही प्रमुख होती है, किन्तु वह साधन उपेक्षित बना रहता है, जिसके बिना साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं है। अत:, सम्यक् नैतिकजीवन के लिए नीति में सापेक्ष और निरपेक्ष-दोनों तत्त्वों की अवधारणा को स्वीकार करना आवश्यक है। सन्दर्भ ग्रन्थ1. देखिए-ग्रेट ट्रेडीशन्स इन एथिक्स, पृ. 218. 2. देखिए-कण्टेम्पररि एथिकलथ्योरीज, पृ. 160. 3. लिवाइ-अ-थन्, खण्ड 2, अध्याय 27, पृ. 13. यूटिलिटेरिअनिज्म, अध्याय 5, पृ. 95. नैतिक-जीवन के सिद्धान्त, पृ. 59. 6. रीसेण्ट एथिक्स इन इट्स ब्राडर रिलेशन्स, उद्धृत-कण्टेम्पररि एथिकलथ्योरीज, 164. 7. देखिए-गीतारहस्य, अध्याय 2, कर्मजिज्ञासा. 8. स्वयम्भूस्तोत्र, 103. 9. आचारांग, 1/4/2/130; देखिए-श्री अमरभारती, मई 1964, पृ. 15. 10. उत्तराध्ययनचूर्णि, 23. 11. आचारांग, हिन्दी टीका, पृ. 378. 12. उपदेशपद, 779. 13. प्रशमरति-प्रकरण (उमास्वाति), 146; तुलनाकीजिए-ब्रह्मसूत्र (शां.),3/1/25%; गीता (शां.) 3/35 तथा 18/47-48. 14. श्रीअमरभारती, मई 1964, पृ. 15. 15. वही, फरवरी 1965,पृ. 5. 16. वही, मार्च 1965, पृ. 28. 17. गीता, 4/17. 18. वही, 17/20. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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