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________________ 118 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन निरपेक्षता सम्भव है। अनासक्त-कर्म का दर्शन इसी सिद्धान्त पर स्थित है, क्योंकि अनेक स्थितियों में कर्म का बाह्यात्मक रूप कर्ता के मनोभावों का यथार्थ परिचायक नहीं होता, अत: यह माना जा सकता है कि मनोवृत्यात्मक या भावनात्मक-नीति निरपेक्ष होगी, किन्तु आचरणात्मक या व्यवहारात्मक-नीति सापेक्ष होगी। यही कारण है कि जैन-दर्शन में नैश्चयिक-नैतिकता को निरपेक्ष और व्यावहारिक-नैतिकता को सापेक्ष माना गया है। (2) दूसरे, साध्यात्मक-नीति या नैतिक-आदर्श निरपेक्ष होता है, किन्तु साधनपरक नीति सापेक्ष होती है। दूसरे शब्दों में, जो सर्वोच्च शुभ है, वह निरपेक्ष है, किन्तु उस सर्वोच्चशुभ की प्राप्ति के जो नियम या मार्ग हैं, वे सापेक्ष हैं, क्योंकि एक ही साध्य की प्राप्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। पुन:, वैयक्तिक-रुचियों, क्षमताओं और स्थितियों की भिन्नता के आधार पर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादनसम्भव नहीं है, अत: साध्यपरक-नीति को या नैतिक-साध्य को निरपेक्ष और साधनपरक-नीति को सापेक्ष मानना ही एक यथार्थ दृष्टिकोण हो सकता है। (3) तीसरे, नैतिक-नियमों में कुछ नियम मौलिक होते हैं और कुछ नियम उन गौलिक नियमों के सहायक होते हैं; उदाहरणार्थ, भारतीय-परम्परा में सामान्य धर्म और विशेष धर्म (वर्णाश्रम-धर्म) ऐसा वर्गीकरण हमें मिलता है। जैन-परम्परा में भी एक ऐसा ही वर्गीकरण मूलगुण और उत्तरगुण नाम से है। यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि साधारणतया सामान्य मा मूलभूत नियम ही निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय माने जा सकते हैं, विशेष नियम तो सापेक्ष एवं परिवर्तनीय ही होते हैं। यद्यपि हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि अनेक स्थितियों में सामान्य नियमों के भी अपवाद हो सकते हैं और वे नैतिक भी हो सकते हैं, फिर भी यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि अपवाद को कभी भी नियम का स्थान नहीं दिया जा सकता। यहाँ एक बात जो विचारणीय है, वह यह कि मौलिक नियमों की निरपेक्षता भी उनकी अपरिवर्तनशीलता या उनके स्थायित्व के आधार पर ही है, साध्य की अपेक्षा से तो वे भी सापेक्ष हो सकते हैं।। ___जो नैतिक-विचारधाराएँ मात्र निरपेक्षतावाद को स्वीकार करती हैं, वे यथार्थ की भूमिका को भूलकर मात्र आदर्श की ओर देखती हैं। वे नैतिक-आदर्श को तो प्रस्तुत कर देती हैं, किन्तु उस मार्ग का निर्धारण करने में सफल नहीं हो पातीं, जो उस साध्य एवं आदर्श तक ले जाता है, क्योंकि नैतिक-आचरण एवं व्यवहार तो परिस्थितिसापेक्ष होता है। नैतिकता एक लक्ष्योन्मुख गति है, लेकिन यदि उस गति में व्यक्ति की दृष्टि मात्र उस यथार्थ भूमिका तक ही, जिसमें वह खड़ा है, सीमित है, तो वह कभी भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता, वह पथभ्रष्ट होसकता है। दूसरी ओर, वह व्यक्ति, जो गन्तव्य की ओर तो देख रहा है, किन्तु उस मार्ग को नहीं देख रहा है, जिसमें वह गति कर रहा है, मार्ग में वह ठोकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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