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निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
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माप मिलते हों। पुन:, नैतिक-परिस्थिति स्वयं एक ऐसा जटिल तथ्य है, जिसमें जनसाधारण के लिए बिना किसी स्पष्ट सार्वभौम निर्देशक-सिद्धान्त के यह तय कर पाना कठिन है कि उस परिस्थिति में क्या नैतिकहै और क्या अनैतिक ? अत:, नीति में किसी निरपेक्ष-तत्त्वकी अवधारणा करना भी आवश्यक है। इस सन्दर्भ मे जान डिवी का पूर्वोक्त दृष्टिकोण अधिक संगतिपूर्ण जान पड़ता है। वे परिस्थितियाँ, जिनमें नैतिक-आदशों की सिद्धि की जाती है, सदैव परिवर्तनशील हैं और नैतिक-नियमों, नैतिक-कर्तव्यों और नैतिक-मूल्यांकनो के लिए इन परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ समायोजन करना आवश्यक होता है, किन्तु यह मान लेना मूर्खतापूर्ण ही होगा कि नैतिक-सिद्धान्त इतने सापेक्षित हैं कि किसी सामाजिक-स्थिति में उनमें कोई नियामक-शक्ति ही नहीं होती।शुभ की विषयवस्तु बदल सकती है, किन्तु शुभ का आकार नहीं; दूसरे शब्दों में, नैतिकता का शरीर परिवर्तनशील है, किन्तु नैतिकता की आत्मा नहीं। नैतिकता का विशेष स्वरूप समय-समय पर वैसे बदलता रहता है, जैसे-जैसे सामाजिक या सांस्कृतिक-स्तर और परिस्थिति बदलती रहती है, किन्तु नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थिर रहता है। नैतिक-नियमों में अपवाद या आपद्धर्म का निश्चित ही स्थान है और अनेक स्थितियों में अपवाद-मार्ग का आचरण ही नैतिक होता है, फिर भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि अपवाद कभी भी सामान्य नियम का स्थान नहीं ले पाते हैं। निरपेक्षतावाद के सन्दर्भ में यह एक भ्रान्ति है कि वह सभी नैतिकनियमों को निरपेक्षमानता है। निरपेक्षतावाद भी सभी नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध नहीं करता, वह केवल मौलिक नियमों की सार्वभौमिकता ही सिद्ध करता है।
वस्तुत:, नीति की वास्तविक प्रकृति को समझने के लिए निरपेक्षतावाद और सापेक्षतावाद- दोनों ही अपेक्षित हैं। नीति का कौनसा पक्ष सापेक्ष होता है और कौन-सा पक्ष निरपेक्ष, इसे निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है : (1) संकल्प की नैतिकता निरपेक्ष होती है और आचरण की नैतिकता सापेक्ष होती है। हिंसा का संकल्प कभी नैतिक नहीं होता, यद्यपि हिंसा का कर्म सदैव अनैतिक हो, यह आवश्यक नहीं। नीति में जब संकल्प की स्वतन्त्रताको स्वीकार कर लिया जाता है, तो फिर हमें यह कहने काअधिकार नहीं रहता कि संकल्प सापेक्ष है, अत: संकल्प की नैतिकता सापेक्ष नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, कर्म का जो मानसिक-पक्ष है, बौद्धिक-पक्ष है, वह निरपेक्ष हो सकता है, किन्तु कर्म का जो व्यावहारिक पक्ष है, आचरणात्मक पक्ष है, वह सापेक्ष है, अर्थात् मनोमूलकनीति निरपेक्ष होगी और आचरणमूलक-नीति सापेक्ष होगी। संकल्प का क्षेत्र, प्रज्ञा का क्षेत्र, एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ चेतना या प्रज्ञा ही सर्वोच्च शासक है। अन्तस् में व्यक्ति स्वयं अपना शासक है, वहाँ परिस्थितियों या समाज काशासन नहीं है, अत: इस क्षेत्र में नीति की
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