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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
इच्छानुसार उन्हें मोड़ दे। जैन-विचारणा में नैतिक-मर्यादाएँ दुर्ग के खण्डहर जैसी नहीं हैं, जिसमें विचरण की पूर्ण स्वतन्त्रता तो होती है, लेकिन शत्रु के प्रविष्ट होने का सदा भय बना रहता है। वह तो सुदृढ़ चारदीवारियों से युक्त उस दुर्ग के समान है, जिसके अन्दर व्यक्ति को विचरण की स्वतन्त्रता है और विशेष परिस्थितियों में वह उससे बाहर भी आ-जासकता है, लेकिन शर्त यही है कि ऐसी प्रत्येक स्थिति में उसे दुर्ग के द्वारपाल की अनुज्ञा लेनी होगी। जैन-विचारणा के अनुसार नैतिकता के इस दुर्ग का द्वारपाल वह 'गीतार्थ' है, जो देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थितियों को समुचित रूप में समझकर सामान्य व्यक्ति को अपवाद के क्षेत्र में प्रविष्ट होने की अनुज्ञा देता है। अपवाद की अवस्था के सम्बन्ध में निर्णय देने का एवं यथा-परिस्थिति अपवादमार्ग में आचरण करने अथवा दूसरे को कराने का समस्त उत्तरदायित्व 'गीतार्थ' पर ही रहता है। गीतार्थ वह व्यक्ति होता है, जो नैतिक विधि-निषेध के आचारांगादि का तथा निशीथ आदि छेदसूत्रों का मर्मज्ञ हो एवं स्व-प्रज्ञा से देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थितियों को समझने में समर्थ हो। गीतार्थ वह है, जिसे कर्तव्य और अकर्त्तव्य के लक्षणों का यथार्थ ज्ञान है, जो आय-व्यय, कारण-अकारण, अगाढ (रोगी, वृद्ध)- अनागाढ, वस्तु-अवस्तु, युक्त-अयुक्त, समर्थ-असमर्थ, यतना-अयतना का सम्यग्ज्ञान रखता है, साथ ही समस्त कर्त्तव्य-कर्म के परिणामों को भी जानता है, वही विधिवान् गीतार्थ है। 9. मार्गदर्शक रूप में शास्त्र
यद्यपिजैन-विचारणा के परिस्थितिविशेष में कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्धारण गीतार्थ' करता है, तथापि गीतार्थ भी व्यक्ति है, अत: उसके निर्णयों में भी मनपरतावाद की सम्भावना रहती है। उसके निर्णयों को वस्तुनिष्ठता प्रदान करने के लिए उसके मार्ग-निर्देशक के रूप में शास्त्र हैं। सापेक्ष-नैतिकता को वस्तुगत आधार देने के लिए ही शास्त्र को भी स्थान दिया गया। गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि कार्य-अकार्य की व्यवस्था देने में शास्त्र प्रमाण हैं.40 लेकिन यदि शास्त्र को ही कर्त्तव्याकर्त्तव्य के निश्चय का आधार बनाया गया, तो नैतिकसापेक्षता पूरी तरह सुरक्षित नहीं रह सकती। परिस्थितियाँ इतनी भिन्न-भिन्न होती हैं कि उन सभी परिस्थितियों के सन्दर्भो सहित आचार-नियमों का विधान शास्त्र में उपलब्ध नहीं हो सकता। परिस्थितियाँ सतत परिवर्तनशील हैं, जबकि शास्त्र अपरिवर्तनशील होता है, अत: शास्त्र को भी सभी परिस्थितियों में कर्त्तव्याकर्तव्य का निर्णायक य" आधार नहीं बनाया जा सकता। फिर, शास्त्र (श्रुतियाँ) भी भिन्न-भिन्न हैं और परस्पर भिन्न नियम भी प्रस्तुत करते हैं, अत: वे भी प्रामाणिक नहीं हो सकते। इस प्रकार, सापेक्ष-नैतिकता में कर्त्तव्याकर्त्तव्य के निश्चय की समस्या रहती है।
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