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निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
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10. निष्पक्ष बौद्धिक-सत्ता ही अन्तिम निर्णायक .. इस समस्या के समाधान में हमें जैन-दृष्टिकोण की एक विशेषता देखने को मिलती है। वह न तो एकान्त रूप में शास्त्र को ही सारे विधिनिषेध का आधार बनाता है, न व्यक्ति को ही; उसके अनुसार शास्त्र मार्गदर्शक हैं, लेकिन अन्तिम निर्णायक नहीं। अन्तिम निर्णायक व्यक्ति का राग और वासनाओं से रहित निष्पक्ष विवेक ही है। किसी परिस्थितिविशेष में व्यक्ति का क्या कर्त्तव्य है और क्याअकर्त्तव्य है, इसका निर्णय शास्त्रको मार्गदर्शक मानकर स्वयं व्यक्ति को ही लेना होता है।
आचारशास्त्र का कार्य है-व्यक्ति के सम्मुख सामान्य और अपवादात्मक स्थितियों में आचार का स्वरूप प्रस्तुत करना, लेकिन परिस्थिति का निश्चय तो व्यक्ति को ही करना होता है। शास्त्र आदेश नहीं, निर्देश देता है। यही दृष्टिकोण गीता का भी है। गीतोक्त शास्त्रप्रामाण्य भी इस तथ्य का पोषक है, लेकिन शास्त्र का प्रमाण मात्र जानने की वस्तु है, जिसके द्वारा निर्णय लिया जा सकता है। निर्णय करने का अधिकार तो व्यक्ति के पास ही सुरक्षित है। प्रस्तुत श्लोक का ज्ञात्वा' शब्द स्वयं ही इस तथ्यको स्पष्ट करता है। पाश्चात्यआचारदर्शन में भी यह दृष्टिकोण स्वीकृत रहा है। पाश्चात्य-फलवादी विचारक जान डिवी लिखते हैं कि नैतिक-सिद्धान्तों का उपयोग आदेश के रूप में नहीं है, वरन् उस साधन के रूप में हैं, जिसके आधार पर विशेष परिस्थिति में कर्त्तव्य का विश्लेषण किया जा सके। नैतिक सिद्धान्तों का कार्य उन दृष्टिकोणों और पद्धतियों को प्रस्तुत कर देना है, जो व्यक्ति को इस योग्य बना सके कि जिस विशेष परिस्थिति में वह है, उसमें शुभ और अशुभ का विश्लेषण कर सके। इस प्रकार, अन्तिम रूप में तो व्यक्ति की निष्पक्ष प्रज्ञा ही कर्त्तव्याकर्तव्य के निर्धारण में आधार बनती है। जहाँ तक सापेक्ष-नैतिकता को मनपरतावाद के ऐकान्तिक दोषों से बचाने का प्रश्न है, जैन-दार्शनिकों ने उसके लिए 'गीतार्थ' (आदर्श व्यक्ति) एवं 'शास्त्र' के वस्तुनिष्ठ आधार भी प्रस्तुत किए हैं; यद्यपि इनका अन्तिम स्रोत निष्पक्ष प्रज्ञा ही मानी गई। __इस समग्र विवेचन में हमने देखा कि जैन-आचारदर्शन अनेकान्त-सिद्धान्त के आधार पर नैतिक-प्रत्ययों की सापेक्षता को स्वीकार करता है, यद्यपि उस सापेक्षता में भी निरपेक्षता का स्थान है ही। इस प्रकार, सापेक्ष के साथ ही साथ एक निरपेक्ष पक्ष भी माना गया है। 11. नीति के सापेक्ष और निरपेक्ष-तत्त्व
वस्तुतः, नीति की सापेक्षता और निरपेक्षता का यह प्रश्न अति प्राचीनकाल से एक विवादास्पद विषय रहा है। महाभारत, स्मृति-ग्रन्थ एवं ग्रीक दार्शनिक-साहित्य में इस
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