SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता 111 से अनुचित या अनैतिक नहीं हो सकता। यह स्मरण रखना चाहिए कि नैतिकता कर्म के सम्बन्ध में एक दृष्टि है, एक अपेक्षा है; अत: कोई भी कर्म नैतिक-दृष्टि से उचित और अनुचित या नैतिक और अनैतिक- दोनों नहीं हो सकता। यदि हिंसा का विचार या व्यभिचार नैतिक-दृष्टि से अनुचित है, तो वह नैतिक-दृष्टि से कभी भी उचित नहीं हो सकता। वस्तुतः, जैन-परम्परा में अनेकान्तवाद स्वयं भी एकान्त नहीं है, एकान्त और अनेकान्त- दोनों उसमें समाहित हैं। नय (दृष्टिविशेष) की अपेक्षा से उसमें एकान्त का पक्ष समाहित है, तो प्रमाण की अपेक्षा से उसमें अनेकान्त का तत्त्व समाहित है। नय या दृष्टिकोणविशेष के आधार पर उसमें नैतिकता और अनैतिकता के दोनों पक्ष हो सकते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि कर्म के आन्तरिक पक्ष के सन्दर्भ में नैतिकता स्वयं एक दृष्टि होती है, जबकि कर्म के बाह्य-पक्ष के सम्बन्ध में अनेकान्त-दृष्टि स्वयं भी अनेक दृष्टिकोणों से विचार करती है और इस रूप में वह सापेक्ष-नैतिकता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है। 8. आदर्श व्यक्ति का आचार एवं मार्ग-निर्देश ही जनसाधारण के लिए प्रमाणभूत सापेक्ष-नैतिकता में जनसाधारण के द्वारा कर्त्तव्याकर्तव्य का निश्चय करना सरल नहीं है, अत: जैन-नैतिकता में सामान्य व्यक्ति के मार्गदर्शन के रूप में गीतार्थ' की योजना की गई है। गीतार्थ वह आदर्श व्यक्ति है, जिसका आचरण जनसाधारण के लिए प्रमाण होता है। गीता के आचारदर्शन में भी जनसाधारण के लिए मार्गदर्शन के रूप में श्रेष्ठजन के आचार को ही प्रमाण माना गया है। गीता स्पष्ट रूप में कहती है कि श्रेष्ठ या आत्मज्ञानी पुरुष जिस प्रकार का आचरण करता है, साधारण मनुष्य भी उसी के अनुरूप आचरण करते हैं। वह आचरण के जिस प्रारूप को प्रामाणिक मानकर अंगीकार करता है, लोग भी उसी का अनुकरण करते हैं। महाभारत में भी कहा है कि महाजन जिस मार्ग से गए हों, वही धर्ममार्ग है। यही बात जैनागम-उत्तराध्ययन में इस प्रकार कही गई है, 'बुद्धिमान् आचार्यों (आर्यजन) के द्वारा जिस धार्मिक व्यवहार का आचरण किया गया है, उसे ही प्रामाणिक मानकर तदनुरूप आचरण करने वाला व्यक्ति कभी भी निन्दित नहीं होता है।'36 पाश्चात्य विचारक ड्रडले के अनुसार भी नैतिक आचार की शुभाशुभता का निश्चय आदर्श व्यक्ति के चरित्र के आधार पर किया जा सकता है। जैन-विचारणा नैतिक-मर्यादाओं को न तो इतनी कठोर ही बनाती है कि व्यक्ति उनके अन्दर स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण न कर सके, न इतनी अधिक लचीली ही कि व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy