________________
110
भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
का अभाव होगा और हर व्यक्ति अपनी इच्छाओं के वशीभूत हो अपवाद-मार्ग का सहारा लेगा। वास्तविकता यह है कि जब भी आचार के नियमों की सापेक्षता को स्वीकार कर लिया जाता है, तो वह नैतिक-सापेक्षतावाद (moral relativism) हमें अनिवार्यतः मनपरतावाद (subjectivism) की ओर ले जाता है, लेकिन मनपरतावाद में आकर नैतिक-नियम अपना समस्त स्थायित्व खो देते हैं, उसका कोई वस्तुगत आधार नहीं रह जाता और उनमें एक प्रकार की अनिश्चितता और अव्यवस्थितता आ जाती है।
सापेक्षिक-नैतिकता एवं मनपरतावाद में साधारणजन कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निश्चय कर पाने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि परिस्थिति स्वयं में इतना जटिल तथ्य है कि साधारणजन उसके यथार्थ स्वरूप को समझ पाने में असमर्थ होता है। दूसरे, यदि साधारणजन को इसके निश्चय का अधिकार प्रदान कर भी दिया जाए, तो साधारणजन के मनमौजीपन पर नैतिकजीवन की एकरूपता समाप्त हो जाएगी और इस प्रकार नैतिकता का समग्र ढाँचा ही अस्तव्यस्त हो जाएगा, अत: जैन नैतिक-विचारणा इस क्षेत्र में व्यक्ति को अधिक स्वतन्त्र नहीं छोड़ती है कि वह नैतिक-प्रत्ययों को इतना अधिक व्यक्तिनिष्ठ बना दे कि उनका मूल्य ही समाप्त हो जाए। जैन-विचारणा के अनुसार व्यक्ति को इतनी अधिक स्वतन्त्रता नहीं है कि वह शुभत्व और अशुभत्व के प्रत्ययों को मनमाना रूप दे सके। 7. सापेक्ष-नैतिकता और अनेकान्तवाद
अनेकान्तवाद तथा स्याद्वाद जैन-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त हैं, लेकिन कुछ विचारकों का आक्षेप है कि जैन-दर्शन में अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के कारण नैतिकता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। स्याद्वाद के अनुसार जो कर्म नैतिक है, वह अनैतिक भी हो जाता है और जो कार्य अनैतिक है, वह नैतिक भी हो जाता है। स्याद्वाद की ही शैली में वे अपने आक्षेप को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, किसी अपेक्षा से व्यभिचार करना अनैतिक है (स्यात् अस्ति) और किसी अपेक्षा से व्यभिचार करना अनैतिक नहीं है (स्यात् नास्ति)।' इस प्रकार व्यभिचार, हिंसा, चोरी आदि अनैतिक कर्म दूसरी अपेक्षा से नैतिक भी हो सकते हैं। यदि व्यभिचार जैसा अनैतिक कर्म भी नैतिक हो सकता है और अहिंसा जैसा नैतिक कर्म भी अनैतिक हो सकता है, तो फिर सामान्य व्यक्ति के लिए नैतिकता का क्या अर्थ रह जाएगा, यह समझना कठिन है।
इस आक्षेप का निराकरण दो प्रकार से किया जा सकता है। एक तो यह कि यह आक्षेप इसलिए समुचित नहीं है कि स्याद्वाद के अनुसार नैतिकता स्वयं एक अपेक्षा है और जो किसी एक अपेक्षा से सत् होता है, वह उसी अपेक्षा से असत् नहीं हो सकता। यदि कोई कर्म नैतिकता की अपेक्षा से उचित या नैतिक है, तो फिर वही कर्म नैतिकता की उसी अपेक्षा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org