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निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
जिनमें नैतिक - आदर्शों का निर्माण होता है। नैतिक मूल्यांकनों, कर्त्तव्यों एवं नैतिकप्रतिमानों के लिए उन परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ समायोजन करना आवश्यक हो जाता है। यद्यपि इसका यह अर्थ मान लेना भी मूर्खतापूर्ण होगा कि सभी नैतिक सिद्धान्त
सापेक्ष हैं कि किसी भी सामाजिक स्थिति में उनमें कोई नियामक शक्ति नहीं है। शुभ भी विषयवस्तु बदल सकती है, लेकिन उसका आधार नहीं बदलता । प्राप्तव्य लक्ष्यों एवं परिणामों का आधार सदैव समान रहता है। वस्तुतः, समग्र नैतिकता का मूलभूत स्वरूप वही रहता है। नैतिकता के विशेष रूप समय-समय पर सामाजिक परिस्थितियों के साथ बदलते रहते हैं, लेकिन इच्छा, उद्देश्य, सामाजिक माँगें एवं नियम और सहानुभूतिपूर्ण अनुमोदन और आवेशपूर्ण अनुमोदन के तथ्य स्थिर रहते हैं। नैतिकता के विशेष पक्ष अस्थिर हैं। वे सदैव अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति में सदोष होते हैं, लेकिन नैतिक प्रयत्नों का आकारिक स्वरूप उतना ही स्थायी है, जितना कि स्वयं मानवजीवन। नैतिकता का शरीर परिवर्तनशील, सापेक्षिक है, लेकिन नैतिकता का साध्यरूपी आत्मा निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनशील है। 33 इस प्रकार, डिवी के विचारों की जैन दर्शन की स्थापनाओं से काफी निकटता है। दोनों ही नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष, अथवा अस्थायी एवं स्थायी पक्षों को स्वीकार करते हैं। जैन- दर्शन से मिलता-जुलता एक दृष्टिकोण विकासवादी दार्शनिक स्पेन्सर का भी है। स्पेन्सर भी नैतिक-सापेक्षता की धारणा में विश्वास करता है, लेकिन यह भी मानता है कि पूर्ण विकास की अवस्था में नैतिकता भी निरपेक्ष बन जाएगी। स्पेन्सर के इस दृष्टिकोण को जैन- दर्शन की भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है कि जब तब अपूर्णता है, तब तक सापेक्षता है, लेकिन पूर्णता की प्राप्ति के साथ ही सापेक्षता भी समाप्त हो जाती है। सापेक्ष - नैतिकता और मनपरतावाद
6.
यदि नैतिक आचरण का बाह्य-प्रारूप एक सापेक्ष तथ्य है और देश, काल तथा व्यक्तिगत परिस्थितियों से प्रभावित होता है, तो प्रश्न उठता है कि किस स्थिति में किस प्रकार का आचरण किया जाए, इसका निश्चय कैसे किया जाए ? जैन दर्शन कहता है कि उत्सर्ग - मार्ग सामान्य मार्ग है, जिस पर सामान्य अवस्था में प्रत्येक साधक को चलना होता है। जब तक देश, काल और वैयक्तिक दृष्टि से कोई विशेष परिस्थिति उत्पन्न नहीं हो जाती, तब तक प्रत्येक व्यक्ति को इस सामान्य मार्ग पर ही चलना होता है, लेकिन विशेष अथवा अपरिहार्य परिस्थितियों में वह अपवाद-मार्ग पर चल सकता है, लेकिन तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इसका निश्चय कौन करे कि अमुक परिस्थिति में अपवाद-मार्ग का अवलम्बन लिया जा सकता है ? यदि इसके निश्चय करने का अधिकार स्वयं व्यक्ति को दे दिया जाता है, तो फिर नैतिक जीवन में समरूपता और वस्तुनिष्ठता (Objectivity)
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