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________________ 108 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन आचरण की विशेष पद्धतियाँ हैं, लेकिन दोनों ही किसी एक नैतिक-लक्ष्य के लिए हैं; इसलिए दोनों नैतिक हैं। जैसे, दो मार्ग यदि एक ही नगर तक पहुँचाने हों, तो दोनों ही मार्ग होंगे, अमार्ग नहीं; वैसे ही अपवादात्मक-नैतिकता का सापेक्ष स्वरूप और उत्सर्गात्मक नैतिकता का निरपेक्ष स्वरूप-दोनों ही नैतिकता के स्वरूप हैं और कोई भी अनैतिक नहीं है, लेकिन नैतिक-निरपेक्षता का एक रूप और है, जिसमें वह सदैव ही देश, काल एवं व्यक्तिगत सीमाओं से ऊपर उठी होती है। नैतिकता का वह निरपेक्ष रूप अन्य कुछ नहीं, स्वयं नैतिक आदर्श' ही है। नैतिकता का लक्ष्य एक ऐसा निरपेक्ष तथ्य है, जो सारे नैतिक-आचरणों के मूल्यांकन का आधार है। नैतिक-आचरण की शुभाशुभता का अंकन इसी पर आधारित है। कोई भी आचरण, चाहे वह उत्सर्ग-मार्ग से हो या अपवाद-मार्ग से, हमें उस लक्ष्य की ओर ले जाता है, जो शुभ है। इसके विपरीत, जो भी आचरण इस नैतिक-आदर्श से विमुख करता है, वह अशुभ है, अनैतिक है। नैतिक-जीवन के उत्सर्ग और अपवाद नामक दोनों मार्ग इसी की अपेक्षा से सापेक्ष हैं और इसी के मार्ग होने से निरपेक्ष भी, क्योंकि मार्ग के रूप में किसी स्थिति तक इससे अभिन्न भी होते हैं और यही अभिन्नता उनको निरपेक्षताका ययार्थ तत्त्व प्रदान करती है। लक्ष्यरूपी नैतिक-चेतना के सामान्य तत्त्व के आधार पर ही नैतिक-जीवन के उत्सर्ग और अपवाददोनों मार्गों का विधान है। लक्ष्यात्मक नैतिक-चेतना ही उनका निरपेक्ष-तत्त्व है, जबकि आचरण का साधनात्मक मार्ग सापेक्ष तथ्य है। लक्ष्य या नैतिक-आदर्श नैतिकता की आत्मा है और बाह्य-आचरण उसका शरीर है। अपनी आत्मा के रूप में नैतिकता निरपेक्ष है, लेकिन अपने शरीर के रूप में वह सदैवसापेक्ष है। इस प्रकार, जैन-दर्शन में नैतिकता के दोनों ही पक्ष स्वीकृत हैं। वस्तुतः, नैतिक-जीवन की सम्यक् प्रगति के लिए दोनों ही आवश्यक हैं। जैसे लक्ष्य पर पहुँचने के लिए यात्रा और पड़ाव-दोनों आवश्यक हैं, वैसे ही नैतिक-जीवन के लिए भी दोनों पक्ष आवश्यक हैं। कोई भी एक दृष्टिकोण समुचित और सर्वांगीण नहीं कहा जा सकता। समकालीन नैतिक-चिन्तन में भी जैन-दर्शन के इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। 5. डिवी का दृष्टिकोण और जैन-दर्शन पाश्चात्य-फलवादी दार्शनिक जान डिवी का दृष्टिकोण जैन-दर्शन की उपर्युक्त विचारणा के निकट पड़ता है। इस संदर्भ में उसके विचारों को जान लेना भी आवश्यक है। वह लिखता है कि 'नैतिक सिद्धान्तों का कार्य एक दृष्टिकोण और पद्धति प्रदान करना है, जो किसी विशेष परिस्थिति में, जिसमें कि व्यक्ति अपने-आपको पाता है, शुभ और अशुभ तत्त्वों के विश्लेषण के लिए उसे सक्षम बनाती है। वे परिस्थितियाँ सदैव परिवर्तनशील हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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