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निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
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सामान्य या सार्वभौम नियम है, लेकिन मांसाहार विशेष नियम है। जैन परिभाषा में कहें, तो श्रमण के मूलगुण सामान्य नियम हैं और इस प्रकार निरपेक्ष हैं, जबकि उत्तरगुण विशेष नियम हैं, सापेक्ष हैं। आचार के सामान्य नियम देशकालगत विभेद में भी अपनी मूलभूत दृष्टि के आधार पर निरपेक्ष प्रतीत होते हैं, लेकिन इस प्रकार की निरपेक्षता वस्तुत: सापेक्ष ही है। आचरण के जिन नियमों का विधि और निषेध जिस सामान्य दशा में किया गया है, उसकी अपेक्षा से आचरण के वे नियम उसी रूप में आचरणीय हैं। व्यक्ति सामान्य स्थिति में उन नियमों के परिपालन में किसी अपवाद या छूट की अपेक्षा नहीं कर सकता। यहाँ पर भी सामान्य दशा का विचार व्यक्ति एवं उसकी देशकालगत बाह्य-परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया गया है, अर्थात् यदिव्यक्ति स्वस्थ है और देशकालगत परिस्थितियाँ भी वे हैं, जिनको ध्यान में रखकर विधि या निषेध किया गया है, तो व्यक्ति को उन नियमों तथा कर्तव्यों का पालन भी तदनुरूप करना होगा। जैन-परिभाषा में इसे 'उत्सर्ग-मार्ग' कहा जाता है, जिसमें साधक को नैतिक-आचरण शास्त्रों में प्रतिपादित रूप में ही करना होता है। उत्सर्ग नैतिक विधि-निषेधों का सामान्य कथन है, जैसे मन, वचन, काय से हिंसा न करना, न करवाना, न करने वाले का समर्थन करना, लेकिन जब इन्हीं सामान्य विधि-निषेधों को किन्हीं विशेष परिस्थितियों में शिथिल कर दिया जाता है, तब नैतिक-आचरण की उस अवस्था को 'अपवाद-मार्ग' कहा जाता है। उत्सर्ग-मार्ग अपवाद-मार्ग की अपेक्षा से सापेक्ष है, लेकिन जिस परिस्थितिगत सामान्यता के तत्त्व को स्वीकार कर उत्सर्ग-मार्ग का निरूपण किया जाता है, उस सामान्यता के तत्त्व की दृष्टि से निरपेक्ष ही होता है। अपवाद की अवस्था में सामान्य नियम का भंग हो जाने से उसकी मान्यता खण्डित नहीं हो जाती, उसकी सामान्यता या सार्वभौमिकता समाप्त नहीं हो जाती। मान लीजिए, हम किसी निरपराध प्राणी की जान बचाने के लिए असत्य बोलते हैं, इससे सत्य बोलने का सामान्य नियम खण्डित नहीं हो जाता। अपवाद न तो कभी मौलिक नियम बन सकता है, न
अपवाद के कारण उत्सर्ग की सामान्यता या सार्वभौमिकता ही खण्डित होती है। उत्सर्गमार्ग को निरपेक्ष कहने का प्रयोजन यही होता है कि वह मौलिक होता है, यद्यपि उन मौलिक नियमों पर आधारित बहुत-से विशेष नियम हो सकते हैं। उत्सर्ग-मार्ग अपवादमार्ग का बाध नहीं करता है, वह तो मात्र इतना ही बताता है कि अपवाद सामान्य नियम नहीं बन सकता। डॉ. श्रीचन्द के शब्दों में, 'निरपेक्षवाद (उत्सर्ग-मार्ग) सभी नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध नहीं करना चाहता, परन्तु केवल सभी मौलिक नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध करना चाहता है।'32 उत्सर्ग की निरपेक्षता देश, काल एवं व्यक्तिगत परिस्थितियों के अन्दर ही होती है, उससे बाहर नहीं। उत्सर्ग और अपवाद नैतिक
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