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________________ निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता नैतिकता 'मानस - कर्म' के क्षेत्र में नैतिकता को विशुद्ध रूप में निरपेक्ष स्वीकार करती है, लेकिन कायिक या वाचिक - कर्मों के बाह्य- आचरण के क्षेत्र को वह सापेक्ष कहती है। वस्तुत:, विचार का क्षेत्र, मानस का क्षेत्र आत्मा का अपना क्षेत्र है, वहाँ चेतना और प्रज्ञा ही सर्वोच्च शासक है, नैतिक जीवन का साध्य उसी में स्थित रहता है, अत: वहाँ नैतिकता को निरपेक्ष रूप में स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन आचरण के क्षेत्र में चेतन तत्त्व एकमात्र शासक नहीं है, वहाँ तो अन्य परिस्थितियाँ भी शासन करती हैं। वहाँ नैतिकता का साधनात्मक पक्ष होता है, अत: उस क्षेत्र में नैतिकता के प्रत्यय को निरपेक्ष नहीं बनाया जा सकता, वहाँ नैतिकता की सापेक्षता ही समुचित प्रतीत होती है। जैन-विचार के इतिहास में एक प्रसंग ऐसा भी आया है, जब आचार्य भिक्षु जैसे कुछ विचारकों ने नैतिकता के बाह्यात्मक नियमों को भी निरपेक्ष रूप में ही स्वीकार करने की कोशिश की । वस्तुतः, जो नैतिक- विचारणाएँ मात्र सापेक्ष दृष्टि को ही स्वीकार करती हैं, वे नैतिक जीवन के आचरण में उस वास्तविकता ( Fact ) की भूमिका को महत्व देती हैं, जिसमें साधक खड़ा हुआ है, लेकिन वे उस यथार्थता से ऊपर स्थित आदर्श का समुचित मूल्यांकन करने में सफल नहीं हो पातीं। वास्तविकता यह है कि वे 'जो है' उस पर तो ध्यान देती हैं, लेकिन 'जो होना चाहिए' उस पर उनकी दृष्टि नहीं पहुँचती। उनकी दृष्टि यथार्थ या वास्तविकता पर होती है, आदर्श पर नहीं । नैतिकता की ऐकान्तिक सापेक्षवादी मान्यता नैतिक आदर्श की स्थापना जटिल हो जाती है। उसमें नैतिकता सदैव ही बनी रहती है तथा ऐसी कच्ची सामग्री प्रस्तुत करती है, जिसका अपना कोई 'आकार' नहीं होता। वह तो कुम्हार के चाक पर रखे हुए मृत्तिका - पिण्ड के समान होती है, जिसका क्या बनना है, यह निश्चय नहीं । दूसरे, सापेक्षिक- नैतिकता के सिद्धान्त में मूल्यांकन की क्रिया परिस्थिति पर आधारित होती है। नैतिकता का सापेक्ष - सिद्धान्त परिस्थिति पर ही सारा बल देता है। परिस्थिति सदैव परिवर्तनशील होती है। इतना ही नहीं, प्रत्येक परिस्थिति अपने-आप में 'विशिष्ट' होती है और नैतिक कर्ता के रूप में प्रत्येक व्यक्ति भी विशिष्ट होता है, नैतिकता के सापेक्ष - सिद्धान्त में सामान्य नैतिक-नियमों का निर्माण एक असम्भावना बन जाती है। आचरण के सामान्य नियमों के अभाव में व्यावहारिक - नैतिकता का भी कोई स्वरूप अवशिष्ट नहीं रहता। एक व्यावहारिक आचारदर्शन के लिए यह आवश्यक है कि परिस्थिति एवं व्यक्ति के अन्तर को ध्यान में रखते हुए कुछ ऐसे वर्ग बनाए, जिनमें प्रत्येक वर्ग एवं स्थिति के आचरण के नियमों का सामान्य प्रतिमान प्रस्तुत किया जा सके। अतः - जो नैतिक-विचारणाएँ केवल निरपेक्ष दृष्टि को स्वीकार करती हैं, वे मात्र 'आदर्श' की ओर देखती हैं। वे नैतिक आदर्श को प्रस्तुत कर देती हैं, लेकिन साधना-पथ के समुचित Jain Education International 105 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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