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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
नैतिक-नियम नहीं हो सकती, लेकिन द्रव्यहिंसा या बाह्यरूप में परिलक्षित होने वाली हिंसा सदैव ही अनैतिक अथवा अनाचरणीय ही हो, यह नहीं कहा जा सकता। आभ्यन्तरपरिग्रह, अर्थात् आसक्ति सदैव ही अनैतिक है, लेकिन द्रव्य-परिग्रह को सदैव अनैतिक नहीं कहा जा सकता। संक्षेप में, जैन-विचारणा के अनुसार आचरण के बाह्य-रूपों में नैतिकता सापेक्ष हो सकती है, लेकिन आचरण के आन्तरिक भावों या संकल्पों के रूप में वह सदैव निरपेक्ष होती है। सम्भव है कि बाह्य-रूप में अशुभदीखने वाला कोई कर्म अपने अन्तर में निहित किसी सदाशयता के कारण शुभहो जाए, लेकिन आन्तरिक अशुभ संकल्प किसी भी स्थिति में नैतिक नहीं हो सकता।
जैन-मान्यता में नैतिकता अपने हेतु या संकल्प की दृष्टि से निरपेक्ष होती है, परिणाम की दृष्टि से सापेक्ष होती है। दूसरे शब्दों में, नैतिक-संकल्प निरपेक्ष होता है, लेकिन कर्म सापेक्ष होता है। इसी कथन को जैन-परिभाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है कि व्यवहारनय से नैतिकता सापेक्ष है या व्यावहारिक-नैतिकता (Practical Morality) सापेक्ष है; लेकिन निश्चयनय से नैतिकता निरपेक्ष है या निश्चय-नैतिकता निरपेक्ष है। जैनसम्मत व्यावहारिक-नैतिकता वह है, जो कर्म के परिणाम या फल पर दृष्टि रखती है और निश्चय-नैतिकता कर्ता के संकल्प पर दृष्टि रखती है। युद्ध का संकल्प किसी भी स्थिति में नैतिक नहीं हो सकता, लेकिन युद्ध का कर्म सदैव अनैतिक ही हो, यह आवश्यक नहीं। आत्महत्या का संकल्प सदैव अनैतिक होता है, लेकिन आत्महत्या का कर्म सदैव अनैतिक ही हो, यह आवश्यक नहीं है; वरन् कभी-कभी तो वह नैतिक ही हो जाता है।
नैतिकता के क्षेत्र में जब एक बार व्यक्ति के संकल्प-स्वातन्त्र्य को स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर यह कहने का अधिकार ही नहीं रह जाता कि हमारा संकल्प सापेक्ष है और तब नैतिकता भी सापेक्ष नहीं मानी जा सकती। यही कारण है कि जैन-विचारणा संकल्प या विचारों की दृष्टि से नैतिकता को सापेक्ष नहीं मानती। उसके अनुसार शुभ अध्यवसाय या संकल्प सदैव शुभ है, नैतिक है और कभी भी अनैतिक या अधर्म नहीं होता; लेकिन किसी भी निरपेक्ष-नैतिकता की धारणा को व्यावहारिक-आचरण के क्षेत्र पर पूरी तरह लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यवहार सदैव सापेक्ष होता है। डॉ. ईश्वरचन्द्र शर्मा लिखते हैं, 'यदि कोई नियम आचार का निरपेक्ष नियम बन सकता है, तो वह बाह्य न होकर आभ्यन्तरिक ही होना चाहिए। आचार का निरपेक्ष नियम वही हो सकता है, जो मनुष्य के अन्तस में उपस्थित हो। यदि वह नियम बाह्यात्मक हो, तो वह सापेक्ष ही सिद्ध होगा, क्योंकि इसका पालन करने के लिए मनुष्य को बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर रहना पड़ेगा।
जैनों ने नैतिकताको निरपेक्ष तो माना, लेकिन केवल संकल्प के क्षेत्र तक। जैन
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