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निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
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में बुद्ध का दृष्टिकोण कितना सापेक्ष था। परिनिर्वाण के पूर्व बुद्ध ने आनन्द से कहा था, 'हे आनन्द, यदि संघ की इच्छा हो, तो मेरी मृत्यु के पश्चात् वह साधारण नियमों को छोड़ दे।' बौद्ध-धर्म के मर्मज्ञ विद्वान् धर्मानन्द कोसम्बी लिखते हैं कि इससे यह स्पष्ट होता है कि छोटे-मोटे या मामूली नियमों को छोड़ने या देश-काल के अनुसार साधारण नियमों में हेरफेर करने के लिए भगवान् ने संघ को अनुमति दे दी थी। बुद्ध ने भी अवन्तिका जनपद में विचरण करने वाले भिक्षुओं के लिए स्थान एवं उपसम्पदा सम्बन्धी नियमों को शिथिल कर दिया था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध का दृष्टिकोण आचरण के सामान्य नियमों के सम्बन्ध में सापेक्ष ही था। 3. ब्रैडले का दृष्टिकोण और जैन-दर्शन
पाश्चात्य-अध्यात्मवादी दार्शनिक ब्रैडले का दृष्टिकोण भी जैन-दर्शन के समान ही सापेक्षवादी है। वे लिखते हैं, प्रत्येक कर्म के अनेक पक्ष होते हैं, अनेक रूप होते हैं, उसके अनेक वैचारिक-दृष्टिकोण होते हैं और वह अनेक गुणों से युक्त होता है, सदैव अनेक ऐसे सिद्धान्त हो सकते हैं, जिनके अन्तर्गत विचार किया जा सकता है और इसलिए उसे (एकान्तरूप में) नैतिक अथवा अनैतिक मानने में कुछ कम कठिनाई नहीं होती। विश्व में ऐसा कोई भी कार्य नहीं है, जिसे किसी एक धारणा के अनुसार शुभ या अशुभ ठहराया जा सके। मेरा स्थान और उसके कर्तव्य का सिद्धान्त बताता है कि यदि नैतिक तथ्य सापेक्ष नहीं है, तो कोई नैतिकता नहीं होगी। ऐसी नैतिकता, जो सापेक्ष नहीं है, व्यर्थ है।27 नैतिकता का निरपेक्ष-पक्ष ___जैन-दर्शन में नैतिकता के सापेक्ष-पक्ष का महत्व है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि जैन-दर्शन में नैतिकता का निरपेक्ष-पक्ष स्वीकार नहीं है। जैन-तीर्थंकरों का उद्घोष था कि धर्मशुद्ध है, नित्य और शाश्वत है। नैतिकता में यदि कोई निरपेक्ष एवं शाश्वत तत्त्व नहीं है, तो फिर धर्म की नित्यता और शाश्वतता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। जैननैतिकता के अनुसार अतीत, वर्तमान और भविष्य के सभी धर्मप्रवर्तकों (तीर्थंकरों) की धर्मप्रज्ञप्ति एक ही होती है, लेकिन यह भी कहा गया है किधर्मप्रज्ञप्ति एक होने पर भी विभिन्न तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित आचार-नियमों में भिन्नता हो सकती है, जैसे कि महावीर एवं पार्श्वनाथ के द्वारा प्रतिपादित आचार-नियमों में थी। जैन-विचारणा के अनुसारनैतिकता के आन्तरिक और बाह्य-ऐसे दो पक्ष होते हैं, जिन्हें पारिभाषिक-शब्दों में द्रव्य और भाव कहा गया है। आचरण का यह बाह्य-पक्ष देश एवं कालगत परिवर्तनों के आधार पर परिवर्तनशील, अर्थात् सापेक्ष होता है, परन्तु आन्तरिक-पक्षसदैव एकरूपहोता है, निरपेक्ष होता है। वैचारिक या भावहिंसा सदैव अनैतिक होती है, वह कभी भी धर्म-मार्ग अथवा
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