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________________ भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन दिखाई देता । उन्होंने 'गीता रहस्य' में 'कर्म जिज्ञासा' नामक अध्याय में नैतिक नियमों की अपवादिता और सापेक्षिकता की विशद चर्चा की है और उसे हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनेक उद्धरणों के द्वारा पुष्ट भी किया है। महाभारत तथा मनुस्मृति आदि- महाभारत में अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जो नैतिकनियमों की सापेक्षिकता सिद्ध करते हैं। शान्तिपर्व में भीष्म पितामह कहते हैं कि ऐसा कोई आचार नहीं मिलता, जो हमेशा सबके लिए समान रूप से हितकारक हो । यदि किसी एक आचार को स्वीकार किया जाता है, तो दूसरा आचार उससे भी श्रेष्ठ प्रतीत होता है। एक आचार का दूसरे आचार से विरोध भी हो जाता है । 2° यह भी कहा गया है कि किसी समय धर्मरूप कर्म ही अधर्मरूप और कभी अधर्मरूप दीखनेवाला कर्म ही धर्म बन जाता है, अतः 102 भांति विचार करके ही कार्य करना चाहिए। 21 इस प्रकार, आचार के किसी एक निरपेक्ष रूप का प्रतिपादन सम्भव नहीं है। कालभेद एवं देशभेद से आचार में परिवर्तन होते रहते हैं। मनु का कथन है कि युगों के अनुरूप, अर्थात् कालगत भेदों के कारण कृतयुग (सतयुग), त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलयुग में आचार के नियम भिन्न होते हैं। 22 एक ही क्रिया देश या काल के भेद से धर्म या अधर्म हो जाती है। जो धर्म होता है, वह अधर्म हो जाता है और जो अधर्म होता है, वह धर्म हो जाता है। चोरी, झूठ और हिंसा भी अवस्था - विशेष में धर्म हो जाते हैं। 23 गीता में जिस कार्याकार्य व्यवस्थिति का प्रतिपादन है, उसका प्रयोजन यही है कि किंकर्तव्य का निश्चय देश व कालगत परिस्थितियों के अनुसार करना चाहिए। गीता का स्वधर्म का सिद्धान्त नैतिक-सापेक्षता का सबसे बड़ा प्रमाण है, जो वैयक्तिक गुणों भिन्नता के आधार पर आचार के नियमों की विभिन्नता स्वीकार करता है। भारतीयवर्णधर्म का विधान भी पात्र की योग्यता के आधार पर निर्भर है। योग्यता के आधार पर पात्र पर सामाजिक कर्त्तव्यों का दायित्व डालना ही वर्ण-व्यवस्था का प्रमुख उद्देश्य है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं हिन्दू-आचारदर्शन में नैतिक आचरण देश, काल और व्यक्ति - सापेक्ष है। (स) बौद्ध - दृष्टिकोण इस सन्दर्भ में बौद्ध-दृष्टिकोण भी जैन और वैदिक परम्पराओं के तुल्य ही है। विशुद्धिमार्ग में सपर्यन्त और अपर्यन्त शीलों के रूप में सापेक्ष नैतिक-नियमों और निरपेक्ष नैतिक-नियमों को स्वीकार किया गया है। 24 बुद्ध ने नैतिक नियमों के निर्माण में सदैव ही सापेक्ष दृष्टिकोण अपनाया है और देश-कालगत परिस्थितियों के आधार पर वे स्वयं ही परिवर्तन करते रहे हैं। विनयपिटक साक्षी है कि आचार के सामान्य नियमों के सन्दर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only --- www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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