________________
निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
101
ऐकान्तिक-दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करती। आचार्य हरिभद्र लिखते हैं कि भगवान् तीर्थंकर देवों ने न किसी बात के लिए एकान्त विधान किया है और न एकान्त निषेध ही किया है, उनका एक ही आदेश है कि जो कुछ भी कार्य तुम कर रहे हो, उसे सत्यभूत होकर करो, उसे पूरी प्रामाणिकता के साथ करते रहो। आचार्य उमास्वाति का कथन है, 'नैतिक, अनैतिक; विधि (कर्त्तव्य), निषेध (अकर्त्तव्य); अथवा आचरणीय (कल्प), अनाचरणीय (अकल्प) एकान्त रूप से नियत नहीं हैं। देश, काल, व्यक्ति, अवस्था, उपघात और विशुद्ध मनःस्थिति के आधार पर अनाचरणीय आचरणीय बन जाता है और आचरणीय अनाचरणीय।
___ उपाध्याय अमरमुनिजी जैन-दर्शन की अनेकान्तदृष्टि के आधार पर जैन-नैतिकता के सापेक्षिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि त्रिभुवनोदर विवरवर्ती समस्त असंख्येय भाव अपने-आप में न तो मोक्ष का कारण हैं और नसंसार का कारण हैं, साधक की अपनी अन्त:स्थिति ही उन्हें अच्छे और बुरे का रूप दे देती है, अत: एकान्तरूप में न कोई आचरणशुभ होता है और न कोई अशुभ। इसे स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं कि कुछ विचारक जीवन में उत्सर्ग (नैतिकता की निरपेक्ष या निरपवाद स्थिति) को पकड़कर चलना चाहते हैं, जीवन में अपवाद का सर्वथा अपलाप करते हैं। उनकी दृष्टि में अपवाद (नैतिकता का सापेक्षिक दृष्टिकोण) धर्म नहीं, अपितु एक महत्तर पाप है। दूसरी ओर, कुछ साधक वे हैं, जो उत्सर्ग को भूलकर केवल अपवाद का सहारा लेकर ही चलना चाहते हैं। ये दोनों विचार एकांगी होने से उपादेय की कोटि में नहीं आ सकते। जैन-धर्म की साधना एकान्त की नहीं, अनेकान्त की स्वस्थ और सुन्दर साधना है। उसके दर्शनकक्ष में मोक्ष के हेतुओं की कोई बँधी-बँधायी नियत रूपरेखा नहीं है, कोई इयत्ता नहीं है, अत: यह स्पष्ट है कि जैन-दर्शन को अनेकान्तवादी विचारपद्धति के आधार पर सापेक्षिक नैतिकता की धारणा मान्य है, यद्यपि उसका यह सापेक्ष-दृष्टिकोण निरपेक्ष-दृष्टिकोण का विरोधी नहीं है। जैननैतिकता में एक पक्ष निरपेक्ष-नैतिकता का भी है, जिस पर आगे विचार किया जाएगा। (ब) गीताका दृष्टिकोण
गीता का दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि कर्तव्याकर्त्तव्य का निरपेक्ष रूप में निश्चय कर पाना अत्यन्त कठिन है। गीता में भी आचार के नियमों की देश, काल और व्यक्तिगत सापेक्षता स्वीकृत है। गीता में कहा है कि देश, काल और पात्र का विचार कर जो दान दिया जाता है, वही सात्विक होता है, अर्थात् आचरण के औचित्य और अनौचित्य का निर्णय देश, काल और व्यक्ति की अवस्थाओं पर निर्भर है। लोकमान्य तिलक के शब्दों में कार्याकार्य की व्यवस्था देने वाला गीता जैसा कोई प्राचीन ग्रन्थ संस्कृत-साहित्य में नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org