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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
देश, काल अथवा व्यक्ति से सम्बन्धित होते हैं, इसलिए निरपेक्ष नहीं हो सकते। बाह्य जागतिक परिस्थितियाँ और कर्म के पीछे के वैयक्तिक प्रयोजन भी आचरण को सापेक्ष बना देते हैं।
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(अ) जैन- दृष्टिकोण
एक ही प्रकार से आचरित कर्म एक स्थिति में नैतिक होता है और भिन्न स्थिति में अनैतिक हो जाता है। एक ही कर्म एक के लिए नैतिक हो सकता है, दूसरे के लिए अनैतिक | जैन- विचारधारा आचरित कर्मों की नैतिक सापेक्षता को स्वीकार करती है। प्राचीनतम जैन-आगम आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो आचरित कर्म आस्रव या बन्ध हैं, वे भी मोक्ष हेतु हो जाते हैं और जो मोक्ष के हेतु हैं, वे भी बन्धन के हेतु हो जाते हैं। इस प्रकार, कोई भी अनैतिक कर्म विशेष परिस्थिति में नैतिक बन जाता है और कोई भी नैतिक कर्म विशेष परिस्थिति में अनैतिक बन सकता है।
केवल साधक की मन:स्थिति, जिसे जैन - परिभाषा में 'भाव' कहते हैं, आचरण के कर्मों का मूल्यांकन करती है, और उसके साथ-साथ जैन- विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र और कल को भी कर्मों की नैतिकता और अनैतिकता का निर्धारक तत्त्व स्वीकार किया है। उत्तराध्ययनचूर्णि में कहा है, 'तीर्थंकर देश और काल के अनुरूप धर्म का उपदेश करते हैं।'' आचार्य आत्मारामजी महाराज लिखते हैं कि बन्ध और निर्जरा (कर्मों की अनैतिकता और नैतिकता) में भावों की प्रमुखता है, परन्तु भावों के साथ स्थान और क्रिया का भी मूल्य है।" आचार्य हरिभद्र के अष्टक - प्रकरण की टीका में आचार्य जिनेश्वर ने चरकसंहिता का एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसका आशय यह है कि देश, काल और रोगादि के कारण मानव-जीवन में कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आ जाती है, जब अकार्य कार्य बन जाता है, विधा निषेध की कोटि में चला जाता है और निषेध विधान की कोटि में चला जाता है। इस प्रकार, जैन-नैतिकता में स्थान (देश), समय (काल), मन:स्थिति (भाव) और व्यक्तिइन चार आपेक्षिकताओं का नैतिक मूल्यों के निर्धारण में प्रमुख महत्व है। आचरण के कर्म इन्हीं चारों के आधार पर नैतिक और अनैतिक बनते रहते हैं। संक्षेप में, एकान्त रूप से न तो कोई आचरण, कर्म या क्रिया नैतिक है और न अनैतिक; वरन् देश-कालगत बाह्यपरिस्थितियाँ और द्रव्य तथा भावगत परिस्थितियाँ उन्हें वैसा बना देती हैं। इस प्रकार, जैननैतिकता व्यक्ति के कर्त्तव्यों के सम्बन्ध में अनेकान्तवादी या सापेक्ष दृष्टिकोण अपनाती है । वह यह भी स्वीकार करती है कि सामान्य स्थिति में प्रतिमा-पूजन अथवा दानादि कार्य, जो एक गृहस्थ के नैतिक कर्त्तव्य हैं, वे ही एक मुनि या संन्यासी के लिए अकर्त्तव्य होते हैंअनैतिक एवं अनाचरणीय होते हैं । कर्त्तव्याकर्त्तव्यमीमांसा में जैन- विचारणा किसी भी
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