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________________ निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता 99 अनुसार, नैतिकता को ऐकान्तिक रूप से न तो सापेक्ष कहा जा सकता है और न निरपेक्ष। यदि वह सापेक्ष है, तो इसीलिए कि वह निरपेक्ष भी है। निरपेक्ष के अभाव में सापेक्ष सच्चा नहीं है। वह निरपेक्ष इसलिए है कि वह सापेक्षता से ऊपर भी है। नैतिकता की सापेक्षता एवं निरपेक्षता के प्रश्न का ऐकान्तिक हल जैन-विचारणा प्रस्तुत नहीं करती। वह नैतिकता को सापेक्ष मानते हुए भी उसमें निरपेक्षता के सामान्य तत्त्व की अवधारणा करती है। वह सापेक्षिक-नैतिकता की उस कमजोरी को स्पष्ट रूप से जानती थी कि उसमें नैतिक आदर्श के रूप में जिस सामान्य तत्त्व की आवश्यकता होती है, उसका अभाव होता है। सापेक्ष नैतिकता आचरण के तथ्यों को प्रस्तुत करती है, लेकिन आचरण के आदर्श को नहीं। यही कारण है कि जैन-विचारणा ने भी इस समस्या के निराकरण के लिए वही समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाया था, जिसे स्पेन्सर और डिवी ने अपनी दार्शनिक पृष्ठभूमि के नवीन सन्दर्भो में वर्तमान युग में प्रस्तुत किया है। इस प्रश्न पर गहराई से विचार करना आवश्यक है कि जैन-नैतिकता किस अर्थ में सापेक्ष है और किस अर्थ में निरपेक्ष है। जैन-तत्त्वज्ञान अनेकान्त-सिद्धान्त को आधार मानकर चलता है। उसके अनुसार, सत् अनन्त-धर्मात्मक है; अत: सत् सम्बन्धी प्राप्त सारा ज्ञान आंशिक ही होगा, पूर्ण नहीं होगा। हम सब जो नैतिकता के क्षेत्र में आते हैं, अथवा जो उसके आचरण में लगे हुए हैं, पूर्ण नहीं हैं। हमें अपनी अपूर्णता का स्पष्ट बोध है, अत: हम जो भी जानेंगे, वह अपूर्ण ही होगा, सान्त होगा, समक्ष होगा और इसलिए आंशिक एवं सापेक्ष होगा, और यदिज्ञान ही सापेक्ष होगा, तो हमारे नैतिक-निर्णय भी, जो हम प्राप्त ज्ञान के आधार पर देते हैं, सापेक्ष ही होंगे। इस प्रकार, अनेकान्त की धारणा से नैतिक-निर्णयों की सापेक्षता निष्पन्न होती है। आचरण के जिन तथ्यों को हम शुभ-अशुभ अथवा पुण्य-पापके नाम से सम्बोधित करते हैं, उनके सन्दर्भ में साधारण व्यक्ति द्वारा दिए गए निर्णयसापेक्ष ही हो सकते हैं। हमारे निर्णयों के देने में कम से कम कर्ता के प्रयोजन एवं कर्म के परिणाम के पक्ष तो उपस्थित होते ही हैं। दूसरे व्यक्ति के आचरण के सम्बन्ध में दिए गए हमारे अधिकांश निर्णय परिणामसापेक्ष होते हैं, जबकि हमारे अपने आचरण सम्बन्धी निर्णय प्रयोजन-सापेक्ष होते हैं। किसी भी व्यक्ति को न तो पूर्णतया यह ज्ञान होता है कि कर्ता का प्रयोजन क्या था और न यह ज्ञान होता है कि उसके कर्मों का दूसरों पर क्या परिणाम हुआ, अत: जनसाधारण के नैतिक-निर्णय हमेशा अपूर्ण ही होंगे। दूसरी ओर, यह साराजगत् ही अपेक्षाओं से युक्त है, क्योंकि जगत् की प्रत्येक वस्तु अनन्त-धर्मात्मक है। ऐसे जगत् में आचरित नैतिकता निरपेक्ष नहीं हो सकती। सभी कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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