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________________ -लाभ में ग्रहण करें, तो निश्चित ही वह मात्र ध्यान की एक अवस्था न होकर चित्तवृत्ति का 'समत्व' है, चित्त का राग-द्वेष से शून्य होना है और इस अर्थ में वह जैन - परम्परा की 'समाहि' (समाधिसामायिक) से भी अधिक दूर नहीं है । सूत्रकृतांगचूर्णि में कहा गया है कि राग-द्वेष का परित्याग समाधि है । 32 वस्तुतः, जब तक चित्तवृत्तियां सम नहीं होतीं, तब तक समाधिसंभव नहीं । भगवान् बुद्ध ने कहा है, जिन्होंने धर्मो को ठीक प्रकार से जान लिया है, जो किसी मत, पक्ष या वाद में नहीं हैं, वे सम्बुद्ध हैं, समद्रष्टा हैं और विषय स्थिति में भी उनका आचरण रहता है । ” बुद्धि, दृष्टि और आचरण के साथ लगा हुआ सम् प्रत्यय बौद्ध-दर्शन में समत्वयोग का प्रतीक है, जो बुद्धि, मन और आचरण - तीनों को सम बताने का निर्देश देता है। संयुत्तनिकाय में कहा है, आर्यों का मार्ग सम है, आर्य विषमस्थिति में भी सम का आचरण करते हैं 34 | धम्मपद में बुद्ध कहते हैं, जो समत्व - बुद्धि से आचरण करता है तथा जिसकी वासनाएँ शान्त हो गई हैं - जो जितेन्द्रिय है, संयम एवं ब्रह्मचर्य का पालन करता है, सभी प्राणियों के प्रति दण्ड का त्याग कर चुका है, अर्थात् सभी के प्रति मैत्रीभाव रखता है, किसी को कष्ट नहीं देता है, ऐसा व्यक्ति, चाहे वह आभूषणों को धारण करने वाला गृहस्थ ही क्यों न हो, वस्तुतः श्रमण है, भिक्षुक है 35 | जैनविचारणा में 'सम' का अर्थ कषायों का उपशम है। इस अर्थ में भी बौद्ध-विचारणा समत्वयोग का समर्थन करती है । मज्झिमनिकाय में कहा गया है - राग-द्वेष एवं मोह का उपशम ही परम आर्यहै | बौद्ध परम्परा में भी जैन - परम्परा के समान ही यह स्वीकार किया गया है कि समता का आचरण करने वाला ही श्रमण है 37 । समत्व का अर्थ आत्मवत् दृष्टि स्वीकार करने पर भी बौद्ध-विचारणा में उसका स्थान निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। सुत्तनिपात में कहा गया है कि जैसा मैं हूँ, वैसे ही जगत् के सभी प्राणी हैं, इसलिए सभी प्राणियों को अपने समान समझकर आचरण करें । " समत्व का अर्थ राग-द्वेष का प्रहाण या राग-द्वेष की शून्यता करने पर भी बौद्धविचारणा में समत्वयोग का महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। उदान में कहा गया है कि राग- द्वेष और मोह का क्षय होने से निर्वाण प्राप्त होता है।" बौद्ध दर्शन में वर्णित चार ब्रह्मविहार अथवा भावनाओं में भी समत्वयोग का चिन्तन परिलक्षित होता है । मैत्री, करुणा और मुदिता (प्रमोद) भावनाओं का मुख्य आधार आत्मवत् दृष्टि है, इसी प्रकार माध्यस्थ-भावना या उपेक्षा के लिए सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, लौह- कांचन में समभाव का होना आवश्यक है । वस्तुतः, बौद्धविचारणा जिस माध्यस्थवृत्ति पर बल देती है, वह समत्वयोग ही है। 4. गीता के आचार-दर्शन में समत्वयोग - गीता के आचारर-दर्शन का मूल स्वर भी समत्वयोग की साधना है। गीता को योगशास्त्र कहा गया है। योग शब्द युज् धातु से बना है, युज् धातु दो अर्थों में आता है। उसका एक अर्थ है- जोड़ना, संयोजित करना और दूसरा अर्थ है - संतुलित करना, मनः स्थिरता । गीता दोनों अर्थों में उसे स्वीकार करती है। पहले अर्थ में जो जोड़ता है, वह योग है, अथवा जिसके द्वारा जुड़ा समत्वयोग और अन्य योग : 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003605
Book TitleSamatva Yoga aur Anya Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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