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हास्य, रति, अरति, शोक, घृणा, भय एवं कामवासना आदि मनोविकारों की अनुपस्थिति और प्रशस्त विचार ही आईत्-दर्शन में समत्व का स्वरूप हैं। जैन-आगमों में समत्वयोग का निर्देश
जैनागमों में समत्वयोग सम्बन्धी अनेक निर्देश यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं, जिनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं। आर्य महापुरुषों ने समभाव में धर्म कहा है। साधक न जीने की आकांक्षा करे और न मरने की कामना करे। वह जीवन और मरण-दोनों में किसी तरह की आसक्ति न रखे, समभाव से रहे। शरीर और इन्द्रियों के क्लान्त होने पर भी साधक समभाव रखे। इधर-उधर गति एवं हलचल करता हुआ भी साधक निंद्य नहीं है, यदि वह अन्तरंग में अविचल एवं समाहित है, अतः साधक मन को ऊँचा-नीचा (डांवाडोल) न करे । साधक को अन्दर और बाहर सभी ग्रन्थियों (बन्धनरूप गाँठों) से मुक्त होकर जीवन-यात्रा पूरी करनी चाहिए । जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, वही श्रमण है। समता से ही श्रमण कहलाता है। तृण और कनक (स्वर्ण) में जब समान बुद्धि (समभाव) रहती है, तभी उसे प्रव्रज्या कहा जाता है। जोन राग करता है, न द्वेष, वही वस्तुतः मध्यस्थ (सम) है, शेष सब अमध्यस्थ हैं, अतः साधक सदैव विचार करे कि सब प्राणियों के प्रति मेरा समभाव है, किसी से मेरा वैर नहीं है, क्योंकि चेतना (आत्मा) चाहे वह हाथी के शरीर में हो, मनुष्य के शरीर में हो या कुन्थुआ के शरीर में हो, चेतनतत्त्व की दृष्टि से समान ही है। इस प्रकार, जैन आचार-दर्शन का निर्देश यही है कि आन्तरिकवृत्तियों में तथा सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण आदि परिस्थितियों में सदैव समभाव रखना चाहिए और जगत् के सभी प्राणियों को आत्मवत् समझकर व्यवहार करना चाहिए। संक्षेप में, विचारों के क्षेत्र में समभाव का अर्थ है-तृष्णा, आसक्ति तथा राग-द्वेष के प्रत्ययों से ऊपर उठना और आचरण के क्षेत्र में समभाव का अर्थ है-जगत् के सभी प्राणियों को अपने समान मानकर उनके प्रति आत्मवत् व्यवहार करना; यही जैन-नैतिकता की समत्वयोग की साधना है। 3. बौद्ध आचार-दर्शन में समत्व-योग
बौद्ध आचार-दर्शन में साधना का जो अष्टांगिक-मार्ग है, उसमें प्रत्येक साधन-पक्ष का सम या सम्यक् होना आवश्यक है। बौद्ध-दर्शन में समत्व प्रत्येक साधन-पक्ष का अनिवार्य अंग है। पालि भाषा का 'सम्मा' शब्द सम् और सम्यक-दोनों अर्थों की अवधारणा करता है। यदि सम्यक् शब्द का अर्थ 'अच्छा' ग्रहण करते हैं, तो प्रश्न यह होगा कि अच्छे से क्या तात्पर्य है ? वस्तुतः, बौद्ध-दर्शन में इनके सम्यक् होने का तात्पर्य यही हो सकता है कि ये साधन व्यक्ति को राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठने की दिशा में कितने सहायक हैं। इनका सम्यक्त्व राग-द्वेष की वृत्तियों के कम करने में है, अथवा सम्यक् होने का अर्थ है- राग-द्वेष और मोह से रहित होना। राग-द्वेष का प्रहाण ही समत्व-योग की साधना का प्रयास है।
बौद्ध अष्टांग आर्य-मार्ग में अन्तिम सम्यक् समाधि है। यदि हम समाधि को व्यापक अर्थ 6 : समत्वयोग और अन्य योग
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