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कर डालता है । " चाहे कोई कितना ही तीव्र, तप तपे, जप जपे अथवा मुनि - वेश धारण कर स्थूल क्रियाकाण्ड - रूप चारित्र का पालन करे, परन्तु समताभाव के बिना न किसी को मोक्ष हुआ
और होगा। 12 जो भी साधक अतीतकाल में मोक्ष गए हैं, वर्त्तमान में जा रहे हैं और भविष्य में जाएंगे, यह सब समत्वयोग का प्रभाव है। " आचार्य हेमचन्द्र समभाव की साधना को रागविजय का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि तीव्र आनन्द को उत्पन्न करने वाले समभावरूपी जल में अवगाहन करने वाले पुरुषों का राग-द्वेषरूपी मल सहज नष्ट हो जाता है। 14 समताभाव के अवलम्बन से अन्तर्मुहूर्त्त में मनुष्य जिन कर्मों का नाश कर डालता है, वे तीव्र तपश्चर्या से करोड़ों
में भी नहीं नष्ट हो सकते। 15 जैसे आपस में चिपकी हुई वस्तुएँ बांस आदि की सलाई से पृथक् की जाती हैं, उसी प्रकार परस्पर बद्ध-कर्म और जीव को साधु समत्वभाव की शलाका से पृथक् कर देते हैं । " समभावरूप सूर्य के द्वारा राग-द्वेष और मोह का अंधकार नष्ट कर देने पर योगी अपनी आत्मा में परमात्मा का स्वरूप देखने लगते हैं। 17
जैनधर्म में समत्वयोग का अर्थ
समत्वयोग का प्रयोग हम जिस अर्थ में कर रहे हैं, उसके प्राकृत-पर्यायवाची शब्द हैं सामाइय कया समाहि । जैन आचार्यों ने इन शब्दों की जो अनेक व्याख्याएँ की हैं, उनके आधार पर समत्व - योग का स्पष्ट अर्थबोध हो सकता है।
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सम, अर्थात् राग और द्वेष की वृत्तियों से रहित मनः स्थिति प्राप्त करना समत्वयोग (सामायिक) है।
शम (जिसका प्राकृत रूप भी सम है), अर्थात् क्रोधादि कषायों को शमित (शांत) करना समत्वयोग है।
सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखना समत्वयोग है ।
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म का अर्थ एकीभाव है और अय का अर्थ गमन है, अर्थात् एकीभाव के द्वारा बहिर्मुखता (परपरिणति) का त्याग कर अन्तर्मुख होना। दूसरे शब्दों में, आत्मा का स्वस्वरूप में रमण करना या स्वभाव-दशा में स्थित होना ही समत्वयोग है।
सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखना समत्वयोग है ।
सम शब्द का अर्थ अच्छा है और अयन शब्द का अर्थ आचरण है, अतः अच्छा या शुभ आचरण भी समत्वयोग (सामायिक) है । "
नियमसार” और अनुयोगद्वारसूत्र 20 में आचार्यो ने इस समत्व की साधना के स्वरूप का बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है। सर्व पापकर्मों से निवृत्ति, समस्त इन्द्रियों का सुसमाहित होना, सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव एवं आत्मवत् दृष्टि, तप, संयम और नियमों के रूप में सदैव ही आत्मा का सान्निध्य, समस्त राग और द्वेषजन्य विकृतियों का अभाव, आर्त्त एवं रौद्र चिन्तन, समत्वयोग और अन्य योग : 5
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