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ज्ञेयावरण भी कहते हैं , चेतनगत समत्व-केन्द्र को ही आवृत्त करता है, जबकि उसमें पैदा होने वाला क्लेश-चक्र, (रागादि भाव) बाह्य वस्तुओं में ही प्रवृत्त रहता है। सारी विषमताएँ कर्म-जनित हैं और कर्म राग-द्वेषजनित है। इस प्रकार, आत्मा का राग-द्वेष से युक्त होना ही विषमता है, दुःख है, वेदना है और यही दुःख विषमता का कारण भी है। समत्व या राग-द्वेष से अतीत अवस्था आत्मा की स्वभाव-दशा है। राग-द्वेष से युक्त होना विभाव-दशा है, परपरिणति है। इस प्रकार परपरिणति, विभाव या विषयभाव का कारण रागात्मकता या आसक्ति है । आसक्ति से प्राणी स्व से बाहर चेतना से भिन्न पदार्थों या परपदार्थों की प्राप्ति या अप्राप्ति में सुख की कल्पना करने लगता है। इस प्रकार, चेतन बाह्य-कारणों से अपने भीतर विचलन उत्पन्न करता है, पदार्थों के संयोग-वियोग या लाभ-अलाभ में सुख-दुःख की कल्पना करने लगता है। चित्तवृत्ति बहिर्मुख हो जाती है, सुख की खोज में बाहर भटकती रहती है। यह बहिर्मुख चित्तवृत्ति, चिन्ता, आकुलता, विक्षोभ आदि उत्पन्न करती है और चेतना या आत्मा का सन्तुलन भंग कर देती है। यही चित्त या आत्मा की विषमावस्था समग्र दोषों एवं अनैतिक आचरणों की जन्म-भूमि है। विषय-भाव या राग-द्वेष होने से कामना, वासना, मूर्छा, अहंकार, पराश्रयता, आकुलता, निर्दयता, संकीर्णता, स्वार्थपरता, सुख-लोलुपता आदि दोषों की वृद्धि होती रहती है, जो व्यक्ति, परिवार, समाज एवं विश्व के लिए विषमताओं का कारण बनती है। संकीर्णता, स्वार्थपरता एवं सुखलोलुपता के कारण व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से येन-केन-प्रकारेण अपना स्वार्थ साधना चाहता है। उसके इन कृत्यों एवं प्रवृत्तियों से परिजन, समाज, देश व विश्व का अहित होता है । प्रतिक्रियास्वरूप, दोहरा संघर्ष पैदा होता है । एक ओर उसकी वासनाओं के मध्य आन्तरिक संघर्ष चलता रहता है, तो दूसरी ओर उसका बाह्य-वातावरण से, अर्थात् समाज, देश और विश्व से संघर्ष चलता रहता है।
इसी संघर्ष की समाप्ति के लिए और विषमताओं से ऊपर उठने के लिए समत्वयोग की साधना आवश्यक है। समत्व-योग राग-द्वेष-जन्य चेतना की सभी विकृतियाँ दूर कर आत्मा को अपनी स्वभाव-दशा में अथवा उसके अपने स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित करता है। जैनधर्म में समत्व-योग का महत्व
समत्व-योग के महत्व का प्रतिपादन करते हुए जैनागमों में कहा गया है कि व्यक्ति चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, बौद्ध हो अथवा अन्य किसी मत का, जो भी समभाव में स्थित होगा, वह निस्संदेह मोक्ष प्राप्त करेगा। एक आदमी प्रतिदिन लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान करता है और दूसरा समत्व-योग की साधना करता है, किन्तु वह स्वर्ण-मुद्राओं का दानी व्यक्ति समत्व-योग के साधक की समानता नहीं कर सकता।1 करोड़ों जन्म तक निरन्तर उग्र तपश्चरण करने वाला साधक जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर सकता, उनको समभाव का साधक मात्र आधे ही क्षण में नष्ट 4 : समत्वयोग और अन्य योग
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