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________________ एक जैसे लक्षण केवल समानता दर्शाते है, लेकिन कुछ को छोड़ उनके नाम और आशय सर्वथा भिन्न हैं और इस भिन्नता के कारण हम यह नहीं कह सकते हैं कि एक पद्धति ने इनको दूसरी पद्धति से लिया है, इससे केवल उनके एक ही स्रोत का पता चलता है, कि इस आगम काल ( canonical age) में जैनियों की उनकी अपनी एक विशिष्ट ध्यान-पद्धति रही थी । यह भी पूरी तरह मान्य था कि उसके द्वारा साधना के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त ( ultimate end of emancipation) किया जा सकता था। जैन धर्म के ग्रन्थो में जिनभद्र के ध्यानशतक में ध्यान चार प्रकार का माना गया- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इन चार प्रकार के ध्यानों में प्रथम दो- आर्तध्यान और रूद्रध्यान बन्धन का कारण होने से त्याज्य माने गये थें और अतिंम दो- धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान मोक्ष ( emancipation) का कारण होने से ग्राह्य माने गये थे । मेरे विचार में ध्यान के इन चार प्रकारों का वर्गीकरण केवल जैन आचार्यो की ही देन है, अन्य किसी भी भारतीय साधना-पद्धति में इस प्रकार का वर्गीकरण और ध्यान के ये नाम भी हमें नही मिलते है । इसलिये हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं, कि कुछ समान लक्षणों (comman feature) के आधार एक का दूसरे पर प्रभाव दर्शाना बहुत कठिन है । इसी प्रकार 'समत्वयोग' जैनयोग की एक प्रमुख मान्यता (key concept) है सामान्यतः बौद्ध और हिन्दु साधना पद्धति का लक्ष्य तो वही है, भगवद्गीता में तों विशेष रूप से समत्व की साधना को ही योग कहा गया है। लेकिन हम यह नहीं कह सकते है कि समत्वयोग की यह अवधारणा जैनो ने हिन्दुओं से ली है, क्योंकि आचारांग में भी इस तथ्य को प्रतिपादित किया गया । आचारांग गीता से पूर्वकाल का ग्रन्थ है । 3. आगमिक व्याख्याकाल में हिरभद्र द्वारा उल्लेखित विभन्न योग जैनयोग के विकास की दृष्टि से यह काल बहुत महत्वपूर्ण है, इसके दो कारण है। सर्वप्रथम यह कि इस काल में जैन परम्परा में योग सम्बन्धी विपुल साहित्य लिखा गया और उसमें विभिन्न योगों का उल्लेख हुआ । दूसरे इसी काल में अन्य योग पद्धतियों के जैनयोग पर आये प्रभाव को भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस काल के जैन साहित्य में हमें निम्न योग सम्बन्धी उल्लेख मिलते है जैसे:- पांच- यम ( महाव्रत). पांच - नियम कुछ आसन (शारीरिक स्थितियाँ) इन्द्रियो का नियंत्रण और कुछ दार्शनिक तथा धार्मिक निर्देशन के साथ विविध प्रकार के ध्यान। लेकिन इस प्रकार के योग सम्बन्धी विवरण को पूरी तरह 28 : समत्वयोग और अन्य योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003605
Book TitleSamatva Yoga aur Anya Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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