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________________ जैनयोग नहीं माना जा सकता है । मेरे विचार से जैन परम्परा में ध्यान पर प्रथम कृति है, जिनभद्रगणि की ध्यानशतक (6टी शताब्दी), इसमें ध्यान की जैन आगमिक पद्धति का पूर्णतः अनुसरण देखा जाता है और यह समग्र रूप से जैन-धर्म ग्रन्थों (jain canonical work) जैसे कि स्थानांग तथा अन्य जैनागमो पर आधारित है । स्थानांग में 'ध्यान' के मुख्य चार प्रकारों और इनके उपभेदों का वर्णन है, साथ ही 1. उनके विषय (their objects), 2. उनके लक्षण (their signs), 3. उनकी आलंबन (their conditions), 4. उनकी भावना (their reflextion) का भी उल्लेख हैं, लेकिन ध्यानशतक का ध्यान का यह विवरण भी पूरी तरह जैन आगम परम्परा के अनुसार ही है, यद्यपि इसमें कुछ अन्य बातों का भी विवरण है जैसे- ध्यान के उपभेद, ध्यान का समय, ध्यान के उदाहरण, ध्याता की योग्यता (ualities of meditator), ध्यान के परिणाम आदि । जिनभद्र ने इनमें से प्रथम दो अशुभ ध्यानों (unauspicwous dhyanas) का संक्षेप में और अंतिम दो शुभ ध्यानों (uspicious dhyanas) का विस्तार से वर्णन किया है, क्योकि उनके अनुसार प्रथम दो ध्यान बन्धन के कारण है (causes of bondage), जबकि अंतिम दो ध्यान मोक्ष के साधन है (the means of emancipation) और इसीलिये उनको योग- साधना के अंग माना गया हैं। जिनभद्रगणि और पूज्यपाद देवनन्दी के पश्चात् हरिभद्र ऐसे जैन आचार्य हुए है, जिनका जैनयोग पद्धति की पुर्नरचना (Reconstrnction of jain yog) में और अन्य योग पद्धतियों के साथ जैनयोग पद्धति के समन्वय के क्षेत्र में अवदान रहा हैं। उन्होंने जैनयोग संबधी 4 महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है- योगविंशिका, योगशतक, योगबिन्दु, और योगदृष्टिसमुच्चय । आचार्य हरिभद्र ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने जैन परम्परा में योग शब्द की परिभाषा को पहली बार बदल दिया । जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, आगमयुग ( canonical period) में 'योग' शब्द बन्धन का कारण माना गया है। जबकि आचार्य हरिभद्र ने योग को मोक्ष का साधन के रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार समस्त आध्यात्मिक और धार्मिक क्रियाएँ, जो अंत में मोक्ष तक ले जाती है - योग है । I हरिभद्र ने अपने सम्पूर्ण योग साहित्य में सामान्यतः यही मत व्यक्त किया है कि सभी धार्मिक और आध्यात्मिक क्रियाएँ जो कि मोक्ष तक पहुँचाती है, योग के रूप में मान्य है । यह दृष्टव्य है कि उन्होंने अपने योग साहित्य में योग को भिन्न प्रकार से समझाया हैं । प्रथम तो यह कि उन्होंने अपनी योगविंशिका समत्वयोग और अन्य योग 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003605
Book TitleSamatva Yoga aur Anya Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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