SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ७५ परम्परा में काल द्रव्य है या नहीं है, इस प्रश्न को लेकर दो मान्यताओं का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। उस काल में कुछ विचारक काल को स्वतंत्र द्रव्य स्वीकार करते हैं और कुछ विचारक काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर जीव एवं अजीव द्रव्यों को पर्याय का सूचक मानते थे। यदि तत्त्वार्थसूत्र की रचना दिगम्बर परम्परा के अनुसार होती या दिगम्बर आचार्यों ने अपना पाठ बनाया होता तो द्रव्यों की विवेचना के प्रसंग में भी काल का उल्लेख आ जाना चाहिए था। जहाँ अजीव काया का उल्लेख किया वहीं काल का भी उल्लेख होना था। इससे स्पष्ट लगता है कि ग्रन्थकार ने उस मान्यता का संग्रह करने के लिए कि कुछ दार्शनिक काल को भी द्रव्य मानते हैं, इस सत्र की रचना को। अतः "कालश्चेके' यहाँ मूल सूत्र रहा होगा जबकि आगे चलकर काल को एक द्रव्य मान लिया गया तो सूत्रपाठ में से 'एके' पाठ अलग कर दियाकिन्तु यह यापनीय परम्परा में हुआ होगा-ऐसो सम्भावना है, क्योंकि यदि पूज्यपाद इसे बदलते तो वे इसका स्थान भी बदल सकते थे। वस्तुतः चाहे मूल पाठ में 'कालश्च' हो या कालश्चेके हो, यह सूत्र दिगम्बर मान्यता से तत्त्वार्थ को भिन्नता सुचित करते हुए आगमिक परम्परा से निकटता सूचित करता है। क्योंकि जहाँ भगवती एवं प्रज्ञा‘पना में काल को पुद्गल और जीव को पर्याय कहा गया वहीं उत्तराध्ययन में उसे स्वतंत्र द्रव्य कहा गया है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा पूर्व में की जा चुको है। उसकी पुनरावृत्ति निरर्थक है। (३) तीसरे तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय का ग्यारहवाँ सूत्र 'एकादशजिने' भी जिसे दोनों ही पाठों में मान्य किया गया है, दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाता है। क्योंकि दिगम्बर परम्परा केवली या जिन में परिषहों का सद्भाव नहीं मानती है । जब केवली में कवलाहार हो नहीं स्वीकार किया गया, तो फिर क्षुधा-पिपासा जैसे परिषह उसमें संभव ही नहीं होंगे। दिगम्बर टीकाकार भी इस सूत्र को अपने मत के विरुद्ध मानते हैं और इसलिए वे 'न सन्ति' का अध्याहार करके उसे अपने मतानुकूल करना चाहते हैं, जबकि मूलसूत्र स्पष्ट रूप से उनके सद्भाव का संकेत करता है। इस सन्दर्भ में दिगम्बर परम्परा के वरिष्ठ विद्वान् डॉ. हीरालाल जी के विचार द्रष्टव्य हैं-"कून्दकून्दाचार्य ने केवलो के भूख-प्यास आदि को वेदना का निषेध किया है। पर तत्त्वार्थसूत्रकार ने सबलता से कर्मसिद्धान्तानुसार यह सिद्ध किया है कि वेदनीयोदय जन्य क्षुधा-पिपासादि ग्यारह परीषह केवली के भी होते हैं (अध्याय ९ सूत्र ८-१७) सर्वार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy