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________________ ७४ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा मान्य पाठ के इसी अध्याय के उन्नीसवें सूत्र में वैमानिक देवों के सोलह प्रकारों का नाम सहित उल्लेख भी हुआ है ।' दिगम्बर परम्परा के मान्य इस पाठ में जहाँ चतुर्थ अध्याय का तीसरा सूत्र श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वैमानिक देवों के बारह प्रकारों की ही चर्चा करता है, वहीं उन्नीसवाँ सूत्र दिगम्बर परम्परा के अनुसार सोलह देवलोकों के नामों का उल्लेख करता है । इस प्रकार दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य सूत्र पाठ में ही एक अन्तर्विरोध परिलक्षित होता है । चतुर्थ अध्याय के इन तीसरे और उन्नीसवें सूत्र का यह अन्तविरोध विचारणीय है । यह कहा जा सकता है कि एक स्थान पर तो अपनी परम्परा के अनुरूप पाठ को संशोधित कर लिया गया है और दूसरे स्थान पर असावधानीवश वह यथावत् रह गया है। किन्तु एक स्थान पर प्रयत्नपूर्वक संशोधन किया गया हो और दूसरे स्थान पर उसे असावधानीवश छोड़ दिया गया हो - यह बात बुद्धिगम्य नहीं लगती हैं । सम्भावना यही है कि दिगम्बर आचार्यों को यह सूत्र या तो इसी रूप में प्राप्त हुए हों अथवा उस परम्परा के सूत्र हों जो सोलह स्वर्ग मानकर भी वैमानिक देवों के बाहर प्रकार ही मानती हो हो सकता है यह यापनीय मान्यता हो । दिगम्बर टीकाकारों ने इस सन्दर्भ में विशेष कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है । वे मात्र इसे इन्द्रों की संख्या मानकर सन्तोष करते हैं । जबकि यह सूत्र इन्द्र की संख्या का सूचक या इन्द्रों के आधार पर देवों का वर्गीकरण नहीं है क्योंकि यदि इन्द्रों की संख्या या इन्द्रों के आधार पर देवों के वर्गीकरण का सूचक होता तो ज्योतिषी में केवल दो ही इन्द्र हैं फिर पाँच कैंसे कहे गये ? अतः स्पष्ट है कि यह सूत्र दिगम्बर मान्यता के अनुरूप ही नहीं है । (२) दूसरा जो सूत्र है वह पाँचवें अध्याय का बाईसवाँ सूत्र है । श्वेताम्बर परम्परा मान्य सूत्रपाठ में 'कालश्चेके' यह पाठ मिलता है, जबकि दिगम्बर परम्परा में 'कालश्च' ऐसा पाठ मिलता है । द्रव्यों की चर्चा के पश्चात् अन्त में यह सूत्र आया है इससे ऐसा लगता कि ग्रन्थकार काल को द्रव्य मानने के सन्दर्भ में तटस्थ दृष्टि रखता होगा । श्वेताम्बर १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० १. सौघ मेँ शान सानत्कुमारमाहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्र १५ १६ १२ १३ १४ शतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोः । २. देखें - तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि टीका ४ | ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only -तत्त्वार्थसूत्र ४। १९ www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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