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________________ ७६ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा सिद्धिकार एवं राजवार्तिककार ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि मोहनीय कर्मोदय के अभाव में वेदनीय का प्रभाव जर्जरित हो जाता है इससे वे वेदनाएँ केवली के नहीं होतीं । पर कर्मसिद्धान्त से यह बात सिद्ध नहीं होती । मोहनीय के अभाव में रागद्वेषजन्य परिणति का अभाव अवश्य होगा, पर वेदनीय जन्य वेदना का अभाव नहीं हो सकेगा । यदि वैसा होता तो फिर मोहनीय कर्म के अभाव के पश्चात् वेदनीय का उदय माना ही क्यों जाता ? वेदनीय का उदय सयोगी और अयोगी गुणस्थान में भी आयु के अन्तिम समय तक बराबर बना रहता है । इसके मानते हुए तत्सम्बन्धी वेदनाओं का अभाव मानना शास्त्रसम्मत नहीं ठहरता । दूसरे समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा ९३ में वीतराग के भी सुख और दुःख का सद्भाव स्वीकार किया ।" 'एकादशेजिने' सूत्रपाठ की उपस्थिति स्पष्टतः इस तथ्य की सूचक है कि यह ग्रन्थ मूलतः दिगम्बर परम्परा का नहीं है, साथ ही यह सूत्र इस सत्य को भी उद्घाटित करता है कि दिगम्बर परम्परा में मान्य सूत्रपाठ भी उनके द्वारा संशोधित नहीं है अन्यथा वे आसानी से मूल में भी 'एकादशे जिने न संति' पाठ कर सकते थे । इसका पर्य यह है कि यह पाठ उन्हें यापनीयों से प्राप्त हुआ था । यह स्पष्ट है कि यापनीय श्वेताम्बरों के समान 'जिन' में एकादश परिषह सम्भव मानते हैं, क्योंकि वे केवली के कवलाहार के समर्थक हैं । (४) तत्त्वार्थ सूत्र के दिगम्बर परम्परा मान्य पाठ में भी निग्रन्थों के पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ऐसे पाँच विभाग किये गये । पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील की विवेचना करते हुए तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने उनमें सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र का सद्भाव माना है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय ऐसे दो चारित्रों की मान्यता मूलतः यापनीय और श्वेताम्बर है । यापनीयों के प्रभाव से ही आगे यह दिगम्बर परम्परा में मान्य हुई है । पुनः बकुश के तत्त्वार्थराज - वार्तिक में जो दो प्रकार बताये गये हैं । उनमें उपकरण बकुश को विविध, विचित्र परिग्रह युक्त तथा विशेष और बहु उपकरणों का आकांक्षी कहा गया है । केवल कमण्डल और पिच्छी रखने वाले दिगम्बर मुनि के सन्दर्भ में यह कल्पना उचित नहीं बैठती है । यह विविध और विचित्र परिग्रह की कल्पना केवल उन्हीं निर्ग्रन्थों के सन्दर्भ में हो सकती है, जो पिच्छी और १. देखे – दिगम्बर जैन सिद्धान्तदर्पण (द्वितीय अंश ), दिगम्बर जैन पंचायतः बम्बई १९४४ पृ० २० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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