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तत्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ६१ :
में उन्हें पुनः सम्मिलित करना पड़ा। उसी प्रकार का कुछ उपक्रम सर्वार्थसिद्धि के सम्बन्ध में आदरणीय पण्डित फूलचन्द जी द्वारा किया गया है ।
इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि की प्राचीन मुद्रित प्रति में भाष्य का जो अंश था वह भी क्यों निकाल दिया गया यह विचारणीय है । विचार - विकास की दृष्टि से सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ भाष्य का पूर्वापरत्व
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श्वेताम्बर विद्वानों विशेषरूप से पं० सुखलालजी आदि ने तत्त्वार्थ की दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में उपलब्ध वैचारिक विकास जैसेगुणस्थान, सप्तभंगी, प्रमाणचर्चा, स्त्रोमुक्ति निषेध, केवलभुक्ति निषेध आदि के आधार पर यह सिद्ध किया है कि तत्त्वार्थभाष्य को अपेक्षा ये सभी टीकाएँ परवर्ती हैं, क्योंकि इन सभी में एक वैचारिक विकास परिलक्षित होता है । दिगम्बर विद्वानों के द्वारा इस तथ्य का कोई स्पष्ट समाधान दे पाना तो इसलिए सम्भव नहीं था, क्योंकि इन टोका ग्रन्थों में पग-पग पर वैचारिक विकास के तथ्य परिलक्षित होते हैं । फिर भी येनकेन प्रकारेण सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा तत्त्वार्थभाष्य में अर्थ विकास को दिखाने का प्रयत्न किया है । इस सम्बन्ध में पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रो अपनी सर्वार्थसिद्धि की भूमिका में लिखते हैं कि "कहीं कहीं वस्तुके विवेचन में तत्त्वार्थभाष्य में अर्थ विकास के स्पष्ट दर्शन होने से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है । उदाहरणार्थ - दसवें अध्याय में 'धर्मास्तिकाया - भावात्' सूत्र आता है। इसके पहले यह बतला आये हैं कि मुक्त जीव अमुक कारण से ऊपर लोकके अन्त तक जाता है। प्रश्न होता है कि वह इसके आगे क्यों नहीं जाता है और इसी के उत्तरस्वरूप इस सूत्र की रचना हुई है । किन्तु यदि टीका को छोड़कर केवल सूत्रों का पाठ किया जाय तो यहाँ जाकर रुकना पड़ता है और मन में यह शंका बनी ही रहती है कि धर्मास्तिकाय न होने से आचार्य क्या बतलाना चाहते हैं । सूत्रपाठ को यह स्थिति वाचक उमास्वाति के ध्यान में आई और उन्होंने इस स्थिति को साफ करने की दृष्टि से ही उसे सूत्र न मानकर भाष्य का अंग बनाया है । यह क्रिया स्पष्टतः बाद में की गई जान पड़ती है । इसी प्रकार इसी अध्याय के सर्वार्थसिद्धि मान्य दूसरे सूत्र को लीजिए। इसके पहले मोहनीय आदि कर्मों के अभाव से केवलज्ञान को उत्पत्ति का विधान किया गया है । किन्तु इनका अभाव क्यों होता है इसका समुचित उत्तर उस सूत्र से नहीं मिलता और न ही सर्वार्थसिद्धिकार इस प्रश्न को स्पर्श करते हैं । किन्तु वाचक उमास्वाति को यह त्रुटि खटकती है । फलस्वरूप ये सर्वार्थसिद्धि
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