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________________ ६० : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा समस्या को नहीं देख सके थे, पण्डित जी ने उसे देख लिया और अपनी परम्परा को सुदृढ़ करने हेतु सर्वार्थसिद्धि का पाठ बदल डाला। इसी प्रकार पाठभेद के नाम पर अनेक स्थलों पर उन्होंने या तो 'अ' जोड़कर या 'अ' हटाकर पाठों को विपरीत अर्थवाला भी बना दिया, केवल प्रथम अध्याय में ही उन्होंने अनेक स्थलों पर यह उपक्रम किया है। सबसे अधिक आश्चर्य तो यह है कि पण्डितजी को जिन-जिन स्थलों पर ऐसी शंकाये उठो थों उन सभी शंकित स्थलों का समाधान उन्हें किसी न किसी प्रति में मिल गया । जो कि किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं हो सकता है । पुनः आदर गोय पण्डितजी को स्पष्टरूप से यह भय था कि कोई उनसे यह पूछ सकता था कि कौन सा शुद्ध पाठ आपको किस प्रति में मिला । इससे बचने का उपाय भी आदरणीय पण्डितजी ने ढूंढ़ निकाला। उन्होंने गोलमोल उत्तर दिया और फिर कह दिया कि प्रति परिचय खो गया । प्रत्येक शंकित स्थल पर पण्डितजी का उत्तर होता है "यद्यपि सब प्रतियों में इस वाक्य का अभाव नहीं है, परन्तु उनमें कुछ प्राचीन प्रतियाँ ऐसी भी थी जिनमें यह वाक्य नहीं उपलब्ध होता है।" "इस वाक्य पर भी उहापोह कर सब प्रतियों में अनुसंधान किया है। प्रतियों के मिलान करने पर ज्ञात हुआ कि यह वाक्य भी सभी प्रतियों में उपलब्ध नहीं होता है ।'' लगभग सभी जगह इसी प्रकार के उत्तर हैं। मात्र एक स्थल पर प्रति के उल्लेख के साथ उत्तर दिया। यदि एक स्थल पर प्रति के उल्लेख सहित उत्तर दिया गया, तो अन्यत्र क्यों नहीं दिया? अन्त में पण्डितजी ने अपने पूरे बचाव के लिये लिख दिया-"सर्वार्थसिद्धि को सम्पादित होकर प्रकाश में आने में आवश्यकता से अधिक समय लगा है। इतने लम्बे काल के भीतर हमें अनेक बार गृह परिवर्तन करना पड़ा है और भी कई अड़चने आई हैं। इस कारण हम अपने सब कागजात सुरक्षित नहीं रख सके"उन कागजातों में प्रति परिचय भी था। इसीलिए प्रतियों का जो पूरा परिचय हमने लिख रखा था वह तो इस समय हमारे सामने नहीं है और वे प्रतियाँ भी हमारे सामने नहीं, जिनके आधार से हमने कार्य किया था।" जिस प्रकार पूर्व में दिगम्बर विद्वानों ने खटखण्डागम के अपनी परम्परा के विपरीत मूलपाठ बदल डाले थे, यद्यपि बाद में दूसरे संस्करण १. सर्वार्थसिद्धि, सं० ५० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, प्रस्तावना पृ०७ । २. वही, पृ० ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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