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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ५९
१०७ २ संज्ञाः । सम
संज्ञाः । सम१०७ ४ नातिवर्तत इति
नातिवर्तन्त इति ११० १ -र्गतं करणमित्यु
-र्गतःकरणमन्तःकरणमित्यु १११ ६ पताकेति।
पताका वेति । १११ ७ अपैतस्य
अवेतस्य ११३ ७ बहुषु बहुविधेष्वपि
बहुष्वपि बहुत्वमस्ति बहु
विधेष्वपि ११७ ३ द्वित्रिसिक्तः
द्वित्रासिक्तः ११७ ५ द्विव्यादिषु
द्विवादिषु १२० ५ प्रतीत्या व्यु
प्रतीत्य व्यु१३१ ३ ताभ्याम् । तयोः
ताभ्यां विशुद्धयप्रतिपाता
भ्याम् । तयोः १३४ १० नारूपेष्विति
नारूपिष्विति १४० १ -ज्ञानमवध्यज्ञानं
ज्ञानं विभंगज्ञानं १४० ८ –प्रवणप्रयोगो
प्रवणः प्रयोगो ज्ञातव्य है कि यह भी सम्पूर्ण सूची नहीं है । इसो अध्याय के 'द्रव्यवेद -स्त्रीणां' आदि परिवर्तित पाठों का भी इसमें समावेश नहीं है ।
वस्तुतः पण्डित फलचन्दजी ने सवार्थसिद्धि में पाठान्तर के नाम पर जो इतना अधिक परिवर्तन कर डाला, हमारी दृष्टि में वह मात्र पाठभेद से सम्बन्धित ही नहीं है, वह तो सिद्धान्त भेद से भी सम्बन्धित है। उनको जहाँ कहीं भी सवार्थसिद्धि के पाठ वर्तमान दिगम्बर परम्परा की मान्यता के प्रतिकूल लगे, उन्होंने वे सभी पाठ पाठशुद्धि के नाम पर बदल डाले। आगम में द्रव्यवेद का तात्पर्य सदैव हो स्त्री-शरीर (स्त्रीलिंग) से और भावभेद का तात्पर्य स्त्रो सम्बन्धो कामवासना ( स्त्रीवेद) से माना गया था, अतः सर्वार्थसिद्धि कार ने मनुष्यनी का अर्थ द्रव्यस्त्रो किया । किन्तु ऐसा मान्य कर लेने पर षट्खण्डागम की स्त्रीमुक्ति की अवधारणा का निषेध करने हेतु आगे चलकर उसकी धवला टीका में जो भाव-स्त्री की चर्चा उठी है-उससे सर्वार्थसिद्धि का मन्तव्य भिन्न हो जाता । अतः पण्डित जी ने सर्वार्थसिद्धि का पाठ ही बदल डाला । क्योंकि यदि वे मनुष्यणी का तात्पर्य द्रव्य-स्त्री मानते जैसा सर्वार्थसिद्धिकार ने माना है, तो षट्खण्डागम को धवला टीका में भी मनुष्यणो का अर्थ द्रव्यस्त्री ही मानना होता और फिर स्त्रो-मुक्ति निषेध की दिगम्बर परम्परा की अवधारणा ही खण्डित हो जाती। इस प्रकार पूज्यपाद जिस भावी
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