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________________ ६२ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा मान्य 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' इस सूत्र के पूर्वार्ध को स्वतंत्र और उत्तरार्ध को स्वतंत्र सूत्र मानकर इस कमी की पूर्ति करते हैं । सर्वार्थसिद्धि में जब कि इसका सम्बन्ध केवल 'कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षः' पद के साथ जोड़ा गया है वहाँ वाचक उमास्वाति इसे पूर्वसूत्र और उत्तरसूत्र दोनोंके लिए बतलाते हैं।" ___इस प्रकार पं० फूलचन्द्रजी सर्वप्रथम यह दिखाना चाहते हैं कि मुक्तात्मा लोकाग्र से आगे क्यों नहीं जाता है, इसके समाधान हेतु भाष्य में धर्मास्तिकायाभाववात् जो व्याख्या आयी है वह बाद में आयी है और उनकी दृष्टि में तो उमास्वाति ने सर्वार्थसिद्धि मान्यपाठ के आधार पर ही इसे ग्रहण किया है, फिर भी इसे सूत्र के रूप में मानकर भाष्य का अंग बनाया है। इस चर्चा में हमें देखना होगा कि अर्थ-विकास या विचारविकास कहाँ है ? सर्वप्रथम तो यदि हम इस सन्दर्भ में भाष्यमान्य और सर्वार्थसिद्धिमान्य मूल पाठ को देखें तो स्पष्ट लगता है कि भाष्यमान मूलपाठ में तो यह सूत्र है ही नहीं, जबकि सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में यह सूत्र है। यदि उमास्वाति ने इसे सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ से लिया होता तो उसे मूलसूत्र ही क्यों नहीं रखा, भाष्य में इसे क्यों ले गये ? सर्वार्थसिद्धि में वह मूलसूत्र था ही, फिर उन्हें मूलसत्र रखने में क्या आपत्ति थी? यह निश्चित सत्य है कि कथन को तार्किक पूर्णता प्रदान करने के लिए इस तथ्य का उल्लेख होना आवश्यक था। किन्तु भाष्यमान्य मूलपाठ में इसका अभाव होने से यही प्रतिफलित होता है कि भाष्यमान्य पाठ अविकसित है और उसकी अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि मान्यपाठ विकसित है । क्योंकि उसमें इसे मूलसत्र का ही अंग बना लिया गया है। पुनः अनेक स्थलों पर हमने यह दिखाया है कि भाष्य के अनेक अंशों को सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में मूलसूत्र बना लिया गया है। वास्तविकता तो यह है कि भाष्य को देखकर ही सर्वार्थसिद्धिकार ने अथवा उसके पूर्व तत्त्वार्थसूत्र के किसी यापनीय टीकाकार ने मूल पाठ को संशोधित किया होगा। यह तो स्पष्ट ही है कि अनेक प्रसंगों में भाष्यमान पाठ की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ अधिक विकसित है। सर्वार्थसिद्धिकार ने न केवल भाष्य के उस अंश को मूल के रूप में मान्य किया अपितु उस पर अपनी व्याख्या भी लिखी है। यदि हम इसी प्रसंग में देखें तो यह स्पष्ट लगता है कि भाष्यमान्य मूलपाठ की अपेक्षा भाष्य में क्वचित् अर्थ विकास है, किन्तु भाष्यमान्य मूलपाठ की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि मान्य मूलपाठ में और भाष्य की अपेक्षा १. देखे-सर्वार्थसिद्धि स० पं० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, भूमिका पृ० ४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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