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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ५ उमास्वाति का गृध्रपिच्छ विशेषण सम्भवतः यापनीय परम्परा से आया होगा। यह सत्य है कि दूसरी-तीसरी शताब्दी में उत्तर भारत की सवस्त्रपरम्परा में भी पक्षियों के पंखों से निर्मित पिच्छी का प्रचलन था, यह तथ्य मथुरा की आचार्यों एवं मुनियों की सवस्त्र प्रतिमाओं से सिद्ध होता है और सम्भव है कि उमास्वाति गध्र के पंखो से निर्मित पिच्छी रखते हो और इस कारण उनका एक विशेषण गृध्रपिच्छ बन गया हो। चूंकि श्वेताम्बर परम्परा में उनका वाचक विशेषण प्रचलित रहा, अतः उन्होंने गृध्र. पिच्छ विशेषण न अपनाया हो । यदि पं० फूलचन्दजी, उल्लेखों की प्राचीनता के आधार पर उमास्वाति नाम अस्वीकार कर गृध्रपिच्छ नाम अपनाते है, तो फिर उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि गृध्रपिच्छ नाम (वि० ९ वीं शती उतरार्ध ) की अपेक्षा भी उमास्वाति नाम का उल्लेख प्राचीन है, क्योंकि यह नाम भाष्य से तो मिलता ही है-भाष्य के काल को वे चाहे कितना ही नीचे लाये, उसे श्लोकवार्तिक और धवला टीका-जिनमें गध्रपिच्छ नाम आया है, से तो प्राचीन मानना होगा क्योंकि धवला में तत्त्वार्थभाष्य का स्पष्ट उल्लेख है। पुनः जब विद्यानन्दी अपने ग्रन्थ आप्तपरीक्षा की स्वोपज्ञ वृति में 'तत्त्वार्थसूत्रकाररुमास्वातिप्रभृतिभिः' ( श्लोक ११९ ) कहकर उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता मान रहे है-फिर पं० फूलचन्द जी यह कथन किस आधार पर करते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति नहीं किंतु गृध्रपिच्छ है ? पुनः गृध्रपिच्छ और उमास्वाति अभिन्न है या भिन्न भिन्न व्यक्ति है, इस प्रश्न पं० सुखलालजी ने अपनी भूमिका (१०७८)में विस्तार से चर्चा की है। हम उस सब चर्चा में उतरना नहीं चाहते हैं-इच्छक व्यक्ति उस भूमिका को देख ले । जहाँ पं० सुखलाल जी उन्हें भिन्न-भिन्न व्यक्ति मान रहे है, वहाँ पं० जगलकिशोर जी मुख्तार उन्हें अभिन्न मान रहे है। जहाँ उनमें भिन्नता मानकर पं० सुखलालजी यह सिद्ध करने को प्रयत्न कर रहे है कि उमास्वाति श्वेताम्बर है और गृध्रपिच्छ उनका विशेषण नहीं हो सकता है, क्योंकि पिच्छ धारण को परम्परा श्वेताम्बर नहीं है। वही जुगलकिशोरजो मुख्तार उन्हें अभिन्न सिद्धकर यह बताना चाहते हैं कि गृध्रपिच्छ विशेषण से वे दिगम्बर सिद्ध होते हैं, क्योंकि मयूरपिच्छ, गध्रपिच्छ, बलाकपिच्छ धारण की परम्परा दिगम्बर है। इस सम्बन्ध में मेरा दृष्टिकोण भिन्न है, मथुरा की सचेल मुनि-प्रतिमाओं से यह सिद्ध होता कि प्राचीनकाल में पिच्छ धारण की परम्परा सचेलपक्ष में भी रही है। अतः उमास्वाति का गृध्रपिच्छ विशेषण स्वीकार कर लेने पर भी उनको श्वेताम्बर परम्परा को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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