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________________ ४ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा विद्वान पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार भी स्वीकार करते है' इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा में सुप्रचलित निम्न श्लोक भी उद्धत करते हैंतत्वार्थ सूत्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् । वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वाति मुनीश्वरम् || दिगम्बर परम्परा के ही दूसरे तटस्थविद्वान पं० नाथुरामजी प्रेमी भी तत्त्वार्थभाष्य को स्वोपज्ञमानकर उसके कर्ता के रूप में उमास्वाति को ही स्वीकार करते है । पं० फूलचन्दजी केवल इसी भय से कि तत्त्वार्थ के कर्ता उमास्वाति को स्वीकार करने पर कहीं भाष्य को स्वोपज्ञ नहीं मानना पड़े, उसके कर्ता के रूप में गृध्रपिच्छाचार्य का उल्लेख करते है । किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता गृध्रपिच्छ है, यह उल्लेख भी तो ९ वीं शती के उत्तरार्ध के हैं । यह ठीक है कि प्राचीन काल में ग्रन्थकर्ता मूलग्रन्थ में अपने को कर्ता के रूप में उल्लेखित न करके जिनवाणी के प्रति अपना विनय प्रदर्शित करते रहे हों । किन्तु पूज्यपाद देवनन्दी और भट्ट अकलंक तो तत्त्वार्थ के टीकाकार है-उनको कर्ता का उल्लेख करने में क्या आपत्ति थी ? पुनः उस काल तक ग्रन्थ के आदि में पूर्वज आचार्यों का स्मरण करने की परम्परा भी प्रचलित हो गई थी । फिर दिगम्बर परम्परा की प्राचीन टीकाओं में उनके नाम का उल्लेख क्यों नहीं किया? इसका एक मात्र कारण यही है कि वे उन्हें अपनी परम्परा का नहीं मानते थे । यही स्थिति विमलसूरि के सम्बन्ध में भी रहो, पद्मचरित और पउमचरिउ में उनके ग्रन्थ 'पउमचरियं' का अनुसरण करके भी दिगम्बर एवं यापनीय आचार्यों ने उनके नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। मात्र सिद्धसेन इसके अपवाद हैं । जहाँ दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में ९ वीं शती के उत्तरार्ध से गृध्रपिच्छाचार्य के और १३ वीं शती से गृध्रपिच्छ उमास्वाति ऐसे उल्लेख मिलते हैं, वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थभाष्य ( ३ री ४ थी शती) तथा सिद्धसेनगणि ( ७ वीं शती) और हरिभद्र ( ८ वीं शती ) की प्राचीन टीकाओं में भी उसके कर्ता के रूप में उमास्वाति का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है । मात्र यही नहीं उनके वाचकवंश और उच्च नागरी शाखा का भी उल्लेख है । जिन्हें श्वेताम्बर परम्परा अपनी मानती रही है । १. देखें - जैनसाहित्य के और इतिहास पर विशद प्रकाश, पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार -- पृ० २०२ से १०८ तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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