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यथास्थान उल्लेख किया है । वस्तुतः इन सभी के चिन्तन की भूमिका पर ही मैं इस दिशा में आगे बढ़ सका हूँ ।
प्रस्तुत ग्रंथ के लेखन में मैंने साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर यथासंभव तटस्थ दृष्टि से विचार करने का प्रयत्न किया है और अपनी लेखनी को संयत रखा है, किन्तु कहीं-कहीं आग्रह पूर्ण तर्कों की समोक्षा में मुझे कठोर होना पड़ा है। किंतु उसके पीछे मेरी कहीं कोई दुर्भावना नहीं है और न उनकी अवमानना करने का भाव है, फिर भी मेरे इस लेखन से कहीं भी किसी के मन में ठेस लगी हो तो मैं उनके प्रति क्षमाप्रार्थी हूँ । मेरा इतना आग्रह अवश्य है कि यदि हमें जैन परम्परा के इतिहास को • सम्यक् रूप से समझना है, तो हमें अपने-अपने सम्प्रदायों के चश्मे को उतार कर एक ओर रखना होगा। इस लेखन के प्रसंग में पं० दलसुख भाई मालवणिया एवं प्रो० मधुसूदन ढाकी के मार्गदर्शन का लाभ मुझे प्राप्त • हुआ है, पं० दलसुख भाई मालवणिया ने तो इसके प्रारम्भ के लगभग ५० पृष्ठों को ध्यान पूर्वक सुना भी है । अतः इन दोनों विद्वानों के प्रति मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ ।
इस कृति के प्रणयन में पार्श्वनाथ शोधपीठ के मेरे सभी सहकर्मियों विशेष रूप से डा० अशोककुमार सिंह, डा० इन्द्रेशचंद्र सिंह, श्री असीमकुमार मिश्र एवं पुस्तकालय सहायक श्री ओमप्रकाश का सहयोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिला है, अतः इनके प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ । इसी प्रकार पार्श्वनाथ शोधपीठ के संचालक मण्डल का भी आभारी जिनके कारण पार्श्वनाथ शोधपीठ के नीरव वातावरण में मुझे ज्ञानार्जन एवं लेखन का अवसर सहज ही उपलब्ध है । मेरी यह कृति मूलतः 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक बृहत् कृति का ही एक अंश है । किन्तु विषय के महत्त्व तथा कृति के आकार को देखते हुए इसे एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित किया गया है ।
अन्त में मैं यह कहना चाहूँगा कि तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के सम्बन्ध में इस कृति में मैंने जो भी विचार रखे है, उनकी निष्पक्ष समीक्षा मेरे लिये सदैव ही स्वागत योग्य रहेगो ।
पार्श्वनाथ जन्म दिवस
पौष कृष्णा दशमी, सं० २०५० दिनांक ६ जनवरी १९९४
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प्रो० सागरमल जैन निदेशक
पार्श्वनाथ शोधपीठ वाराणसी
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