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[ ९ ] उत्तर भारत के निग्रन्थसंघ में सिद्धान्तों और आचार के प्रश्नों पर आचार्यों में परस्पर मतभेद उभरकर सामने आ गये थे।
(३) उस काल में उत्तर भारत में यद्यपि मुनियों में वस्त्र एवं पात्र ग्रहण करने की प्रवृत्ति विकसित हो गई थी, किन्तु आपवादिक स्थिति को छोड़कर मुनि प्रायः नग्न ही रहते थे। वस्त्र, कम्बल आदि का उपयोग मात्र लज्जा या शीतनिवारण के लिये ही किया जाता है।
(४) जहाँ तक तत्त्वार्थसूत्र के मूल पाठ का प्रश्न है, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि भाष्य-मान्य पाठ ही मूल पाठ है। किन्तु मेरी यह भी स्पष्ट मान्यता है कि सर्वार्थसिद्धि मान्यपाठ भी दिगम्बर आचार्यों द्वारा संशोधित नहीं है। वह पाठ उन्हें यापनीय आचार्यों से प्राप्त हुआ था । अतः तत्त्वार्थसूत्र के पाठ संशोधन का कार्य यापनीय परम्परा में किया गया।
(५) भाष्य की स्वोपज्ञता पर किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं किया जा सकता।
(६) जहाँ तक तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का प्रश्न है वे, उत्तर भारत के निर्ग्रन्थसंघ के कोटिकगण की उच्चनागरी शाखा में हुए हैं उनका वास्तविक नाम वाचक उमास्वाति ही है, उनका गृद्धपिच्छ विशेषण परवर्ती है, वह लगभग ९-१०वों शती में अस्तित्व में आया है। । उनका जन्म स्थल सतना (म० प्र०) के निकट स्थित वर्तमान नागौद नामक ग्राम ही है और वे जिस उच्चै गर शाखा में दीक्षित हए वह भी सतना के ही समीप उँचेहरा ( उच्च-नगर ) नामक नगर से प्रारम्भ हुई थी।
(७) जहाँ तक तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल का प्रश्न है वह विक्रम को तृतीय सदी के उत्तरार्द्ध से चतुर्थ शताब्दो के पूर्वाद्धं के बीच कभी निर्मित हुआ है। - प्रस्तुत कृति के प्रणयन में पं० सुखलाल जी, पं० नाथूराम जो प्रेमी, पं० परमानन्द जी शास्त्री, पं० जुगुल किशोर जी मुख्तार, पं० कैलाशचंद जी, पं० फूलचंद जी सिद्धान्तशास्त्री, डा० दरबारोलाल जी कोठिया, डा० कुसूम पटौरिया आदि विद्वानों के चिन्तन एवं लेखन से मैं लाभान्वित हुआ हूँ। अतः इन सभी विद्वानों के प्रति आभार प्रकट करना मेरा पुनीत कर्तव्य है। मैंने न केवल उनके तत्त्वार्थ सम्बन्धी लेखों से लाभ उठाया है अपितु उनके विचारों की समीक्षा करने के लिए आवश्यक होने पर उनकी कृतियों के दो-दो, तीन-तीन पृष्ठ यथावत् उद्धृत भी किये हैं, जिनका मैंने
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