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ध्यान-मुद्राएँ
ज्ञान-मुद्रा
चेतना का एक विशिष्ट गुण है- ज्ञान। ज्ञान ही जीवित और निर्जीव वस्तुओं में अन्तर करता है। ज्ञान जिसमें है, वह जीव है। जिसमें ज्ञान नहीं, वह निर्जीव है। ज्ञान का विकास ही व्यक्ति को सामान्य से विशिष्ट बना देता है। ज्ञान की उपलब्धि के निम्न दो साधन हैं:
१. अभ्यास द्वारा जानकारी का विकास करना। २. चेतना के अनावरण से ज्ञान उपलब्ध/ प्रकट होना।
इन्द्रिय और मन से विकसित होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। यही ज्ञान जब दूसरों को समझाने की क्षमता वाला हो जाता है, तब श्रुतज्ञान बन जाता है। प्राचीन युग में ज्ञान का विकास सुनकर ही किया जाता था। वेद, आगम, त्रिपिटक आदि सारे ग्रंथ कंठस्थ होते थे। उन्हें सुनकर ही स्मृति–पटल पर अवधारण किया जाता था। उसके पश्चात् जब ज्ञान संकेतों के माध्यम से लिपिबद्ध होने लगा, तब वह श्रुत शास्त्ररूप में पुस्तकारूढ़ हो गया। पुस्तकों में आरूढ़ होने से एक लाभ यह हुआ कि श्रुत की प्रामाणिकता निश्चित हो गई। श्रुत एक-दूसरे तक सुगमता से प्रसारित होने लगा। श्रुत को धारण करने के लिए बाल-वय से ही पराक्रम करना होता था।
योग्य व्यक्तियों को उसके लिए नियुक्त किया जाता था। समय के साथ श्रुत-ग्रहण धारण की यह पद्धति कमजोर हो गई। परिणामतः, स्मृति की दुर्बलता भी होने लगी। स्मृति और ज्ञान को विकसित करने के लिए जिस मुद्रा का प्रयोग किया जाता है,
MEENERALA
ध्यान दर्पण/95
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