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________________ जैन धर्म में ध्यान-साधना का इतिहास जैन धर्म में ध्यान-साधना की परम्परा प्राचीनकाल से ही उपलब्ध होती है। सर्वप्रथम हमें आचारांग में महावीर के ध्यान संबंधी अनेक संदर्भ उपलब्ध हैं। आचारांग से यह भी ज्ञात होता है कि महावीर ने न केवल चित्तवृत्तियों के स्थिरीकरण का अभ्यास किया था, अपितु उन्होंने दृष्टि के स्थिरीकरण का भी अभ्यास किया था। भद्रबाहु द्वारा नेपाल में जाकर महाप्राण ध्यान की साधना करने का उल्लेख भी मिलता है। जिस रामपुत्र का निर्देश भगवान् बुद्ध के ध्यान के शिक्षक के रूप में मिलता है, उसका उल्लेख जैन-परम्परा के प्राचीन आगमों में, जैसेसूत्रकृतांग, अंतकृत्दशा, औपपातिक-दशा आदि में होना इस बात का प्रमाण है कि निर्ग्रन्थ परम्परा रामपुत्त की ध्यान-साधना की पद्धति से प्रभावित थी। मध्ययुग में जब भारत में तंत्र और हठयोग संबंधी साधनाएँ प्रमुख बनीं, तो ध्यान की प्रक्रिया में परिवर्तन आया। जैसे-जैसे भारतीय समाज में तंत्र और हठयोग का प्रभाव बढ़ा, वैसे-वैसे जैन साधना-पद्धति में भी परिवर्तन आया। जैन ध्यान-पद्धति में पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ आदि ध्यान की विधियाँ और पार्थिव, आग्नेयी, वायवी और वारुणी जैसी धारणाएँ सम्मिलित हुई। बीजाक्षरों और मंत्रों का ध्यान करने की परंपरा विकसित हुई। जैनधर्म में आत्मा नित्य परिणमनशील है। न्याय-वैशेषिक तो आत्मा और ज्ञान को भिन्न मानते हैं। वेदान्त कहता है- आत्मा कूटस्थ-नित्य है। वह सदा नित्य अपरिणमनशील है। बौद्ध तो आत्मा को मानता है, पर उसे अनित्य ही मानता है। सब कुछ अनित्य है। जैन मोक्ष में भी ज्ञान को सुरक्षित रखता है, क्योंकि 88/ध्यान दर्पण COTTON Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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