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ध्यान - विषयक जैन साहित्य
१. आचारांग - यह द्वादशांगी का प्रथम अंग है। इसके नौवें अध्याय में ध्यानयोगी भगवान् महावीर की साधना की बात कही गई है। भगवान् महावीर प्रहर - प्रहर तक अपनी आँखें बिलकुल न टिमटिमाते हुए तिर्यक् भित्ति पर केन्द्रित कर ध्यान करते थे। दीर्घकाल तक नेत्रों के एकटक रहने से उनकी आँखों की पुतलियां ऊपर चढ़ जातीं, जिन्हें देखकर बच्चे भयभीत हो जाते और 'हन्त, हन्त' कहकर चिल्लाते और दूसरे बच्चों को बुलाते। इसे महावीर का त्राटक कहा है।
२. सूत्रकृतांग - पहले श्रुतस्कन्ध में दसवाँ अध्याय समाधि के वर्णन से पूर्ण है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में ध्यान-साधक मूलगुण एवं उत्तरगुण, ध्यानयोग, समाधियोग और भावनायोग शब्दों का प्रयोग मिलता है।
३. ठाणं- तीसरे अंग में ध्यान का विशेष वर्णन है । समवायांग में धर्मध्यान का विस्तृत वर्णन है । विवाहपण्णही में धर्मध्यान और शुक्लध्यान के स्वरूप का विस्तृत विवेचन है, तो नायाधम्मकताओं में चारों ध्यान का उल्लेख है। द्वादशांग में ध्यान के स्वरूप, लक्षण आदि का वर्णन आता है। उपांग में भी ध्यान का वर्णन मिलता है । चारों मूलसूत्रों में ध्यान-साधना का वर्णन
है।
आगमेत्तर ध्यान - विषयक जैन-साहित्य तथा बौद्ध - साहित्य में भी ध्यान का उल्लेख है। कुंदाकुंदाचार्य के प्रवचनसार के चारित्राधिकार में ध्यान के स्वरूप का उल्लेख किया गया है। पंचास्तिकाय में १५२ गाथा में धर्मध्यान के लोकसंस्थान -भेद का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। ज्ञानार्णव में शुभचन्द्र आचार्य ने
86 / ध्यान दर्पण
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