SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हठयोग में "ध्यानं निर्विषयं मनः " - इस प्रकार कहा गया है । तुकाराम महाराज मराठी अभंग में कहते हैं > 'सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी । कर कटावरी ठेवूनिया। तुलसीहार गळा, कासे पितांबर । आवडे निरंतर हेचि ध्यान । मकर कुंडले, तळपति श्रावणी | कंठी कौस्तुभमणी विराजीत । तुका म्हणे माझे हेचि सर्व सुख । पाहीन श्रीमुख आवडीने।।' यह पांडुरंग का सगुण रूप है। भगवान् बुद्ध कहते हैं 'There is no meditation without wisdom nor is there wisdom without meditation. He who possess both is indeed close to Nirvana.' दास कबीर कहते हैं "दास कबीर यतन से ओढी, जैसी की तैसी धर दीनी चदरियाँ ।" तुम सावधानीपूर्वक इस चादर को धारण करो, मैंने इस पर दाग नहीं लगने दिया है। ध्यान में सावधानी, जाग्रति का पहला स्थान है। इन सब परिभाषाओं से कुछ हटकर आचार्य महाप्रज्ञ ने ध्यान का लक्षण बताया है कि ध्यान चेतना की वह अवस्था है, जो अपने आलम्बन के प्रति एकाग्र होती है, अथवा बाह्यशून्यता होने पर भी आत्मा के प्रति जागरूकता अबाधित रहती है। साथ ही, उन्होंने कहा है कि चिन्तनशून्यता ध्यान नहीं और वह चिन्तन भी ध्यान नहीं, जो अनेकाग्र है। एकाग्र - चिन्तन ही ध्यान है, भावक्रिया ध्यान है और चेतना के व्यापक प्रकाश में चित्त विलीन हो जाता है, वह भी ध्यान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यान दर्पण / 85 www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy