________________
प्रेक्षाध्यान में ध्यान
प्रेक्षाध्यान- यह जैनों की ध्यान-पद्धति है, जिसे आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रचलित किया। प्रेक्षाध्यान ध्यानाभ्यास की एक ऐसी पद्धति है, जिसमें प्राचीन दार्शनिकों से प्राप्त बोध एवं साधना-पद्धति को आधुनिक वैज्ञानिक संदर्भो में प्रतिपादित किया गया है। कायोत्सर्ग, अन्तर्यात्रा, लेश्या-ध्यान,
चैतन्यकेन्द्रप्रेक्षा, शरीरप्रेक्षा, श्वासप्रेक्षा, अनुप्रेक्षा- ये सारे ध्यान के ही प्रयोग हैं। अप्रमाद की कला प्रेक्षाध्यान हमें सिखाता है। महावीर भगवान् ने भी कहा है- 'क्षणं जाणहि पंडिए।' प्रेक्षाध्यान के आठ अंग हैं।
'आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो'- यह अध्यात्म-चेतना के जागरण का महत्वपूर्ण सूत्र है। इस सूत्र का अभ्यास हम शरीर से प्रारंभ करते हैं। आत्मा शरीर में है, इसलिए स्थूल शरीर को देखे बिना आगे नहीं जा सकते हैं। मध्यस्थता या तटस्थता प्रेक्षा का ही दूसरा रूप है। देखना है, परन्तु प्रियता या अप्रियता की उपेक्षा करना है।
विपश्यना में श्वास तथा मौन का अवलंबन लिया जाता है। महर्षि महेश योगी वेदमंत्रों से ध्यान सिखाते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने ध्यान को सम्यग्दर्शन और ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित कहा है। ध्यानशतक
और आदिपुराण में स्थिर अध्यवसान को, एक वस्तु का आलम्बन लेने वाले मन को ध्यान कहा है। भगवती आराधना में एकाग्र चिन्ता निरोध को ध्यान कहा गया है। महर्षि कपिल ने राग के विनाश को तथा निर्विषय मन को ध्यान कहा है। विष्णुपुराण में ध्यान के लक्षण को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि ऐहिक विषयों की ओर से निस्पृह होकर परमात्म स्वरूप को विषय करने वाले ज्ञान की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। 84/ध्यान दर्पण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org