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________________ पुराणों में ध्यान श्रीमद्भागवत्पुराण में भक्तियोग के साथ-साथ अष्टांग-योग का भी वर्णन किया गया है। शिवपुराण में ध्यान के दो भेदों का उल्लेख है— १. सविषयक ध्यान २. निर्विषयक ध्यान । पुराणों में बताया गया है कि ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं है, न कोई यज्ञ है, इसलिए ध्यान आवश्यक है। योगवशिष्ठ में ध्यान जब योगी अपने मन को पूरी तरह शान्त कर लेता है, तभी उसको ब्रह्मतत्त्व प्राप्त होता है। पातंजल - योगसूत्र में ध्यान - पतंजलि का योगसूत्र चार पादों में विभक्त है और १९५ सूत्रों से सुशोभित है। प्रथम पद का नाम समाधिपाद है। इसमें योग के लक्षण, स्वरूप तथा उसकी प्राप्ति के उपायरूप सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधियों का वर्णन है । चित्त की वृत्तियां पांच होती हैं- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । क्लेश पांच प्रकार के होते हैं- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश । अभ्यास और वैराग्य से इन्हें दूर किया जा सकता है। मन की स्थिरता के लिए बार-बार प्रयास करना चाहिए। महर्षि ने अष्टांगयोग में ध्यान को सातवें क्रम में रखा है | अद्वैत - वेदान्त में अविद्या के पर्दों को हटाना है । अद्वैत वेदान्त आत्मा को ब्रह्म से भिन्न नहीं मानता है । उसमें ब्रह्म को संपूर्ण सृष्टि का आधार माना है तथा वह सगुण और निर्गुण रूप में है । वेदान्त के अनुसार समाधि दो प्रकार की है- १. सविकल्प और २. निर्विकल्प । Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यान दर्पण / 83 www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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