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________________ गया है कि जिस प्रकार तिलों में तेल, दही में घी एवं अरणियों में अग्नि छिपी रहती है, उसी प्रकार से परमात्मा हमारे हृदय में छिपे रहते हैं। महाभारत में ध्यान महाभारत में कहा गया है कि जीव को सर्वप्रथम अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियां चंचल, अस्थिर होती हैं । इन्द्रियों पर विजय पाने के पश्चात् मन को स्थिर कर पंचेन्द्रिय सहित मन को ध्यान में एकाग्र करना चाहिए। ध्यान के द्वारा जीव अपने सभी दोषों को नष्ट करके मोक्षपद को प्राप्त करता है एवं परमात्मा के स्वरूप में लीन हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में ध्यान गीता में 'योग' शब्द बहुत बार आया है। गीता में स्वतः- सिद्ध समता के स्वरूपवाली स्थिति को योग कहा गया है। इसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं ध्यानयोग आदि का उल्लेख किया गया है। गीता के छठवें अध्याय में श्लोक १० से ३२ तक ध्यानयोग का ही वर्णन है। गीता में परम योगी का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जो ध्यानयुक्त ज्ञानी महापुरुष अपने को सबमें तथा सबको परमार्थस्वरूप में स्थित मानता है एवं सुख - दुःख सभी स्थितियों में समभाव से रहता है, वह परमयोगी है। स्मृति-ग्रन्थों में ध्यान स्मृतियों में मोक्ष को प्राप्त करने के लिए जप, तप एवं योगीन्यास का वर्णन मिलता है । मन और बुद्धि को विषयों से हटाकर ध्येय को आत्मा में स्थित करना चाहिए । 82/ ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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