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ध्यान की परम्परा
आचार्य कुन्दकुन्द, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यान की मौलिक परम्परा सुरक्षित रही है। वह किसी अन्य परम्परा से प्रभावित नहीं है। विक्रम की आठवीं शताब्दी में हरिभद्रसूरी हुए। उन्होंने योग पर अनेक ग्रन्थ लिखे, जैसेयोगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविंशिका, षोडशक आदि, किन्तु महर्षि पतंजलि के योगसूत्र की कुछ विशेषताएं हैं
१. वह बहुत व्यवस्थित ग्रन्थ है। २. बहुत स्पष्ट, सरल और संक्षिप्त है। ३. कोई खंडन नहीं।
यह सांख्य दर्शन की साधना-विधि का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। प्राचीनकाल में सांख्य दर्शन श्रमण-परम्परा का एक अंग था। श्रमणों के पांच मुख्य दर्शन थे- जैन, बौद्ध, आजीवक, परिव्राजक और तापस।
आचार्य हरिभद्र ने योग के पांच प्रकार बतलाए हैंअध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंचय। उन्होंने योगदृष्टिसमुच्चय में आठ दृष्टियों का निरूपण किया और अष्टांगयोग से तुलना की। भारतीय परम्परा की वैदिक, जैन एवं बौद्ध-परम्परा में ध्यान-विषयक चिंतन मिलता है। भारतीय-संस्कृति में सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद हैं। वैदिक–परम्परा में ध्यान का अस्तित्व, चाहे तप के रूप में, चाहे योग के रूप में किसी-न-किसी प्रकार से अवश्य रहा है। उस काल में विद्वानों का कोई भी यज्ञ-कर्म बिना ध्यान के सिद्ध नहीं होता था। उपनिषद्-काल में भी ध्यान का महत्व रहा। श्वेताश्वतरोपनिषद् में स्पष्ट रूप से ध्यान का वर्णन मिलता है। इस उपनिषद् में कहा
SAREER
ध्यान दर्पण/81
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