SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुण होता है, पर जीव के विकास की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है, अर्थात् उसमें तारतम्य रहता है। 'जानति इति ज्ञानम्' अर्थात्, जो जानता है या जानने की क्रिया करता है, वह ज्ञान है। ज्ञान को ही आत्मा कहा गया है। जैनदर्शन ज्ञान को आत्मा-गुण स्वीकारता है। जैनदर्शन में आत्मा को अमूर्त द्रव्य कहा गया है। आत्मा एकान्त-रूप से न तो अमूर्त है और न मूर्त। संसार की अपेक्षा से वह कथंचित्-मूर्त भी है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा से अमूर्त है। आत्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप को जैनदर्शन के साथ-साथ प्राय: सभी भारतीय दर्शनों में भी स्वीकार किया गया है। आत्मा वचनातीत है एवं वाणी के द्वारा उसका वर्णन असंभव है। जीव के दो भेद होते हैं- १. सिद्ध २. संसारी। भगवतीसूत्र में अष्टविध आत्माओं का एक विशिष्ट वर्गीकरण उपलब्ध है- १. द्रव्यात्मा २. उपयोगात्मा ३. ज्ञानात्मा ४. दर्शनात्मा ५. चारित्रात्मा ६. वीर्यात्मा ७. योगात्मा ८. कषायात्मा। इस प्रकार, आत्मा और ध्यान का ज्ञान हमें हमारी मंजिल तक ले जाएगा, जो कि आत्मदर्शन है, इससे कबीर के समान 'सहजे सहजानन्द, अंतरदृष्टि परमानंद' की स्थिति होगी। 80/ध्यान दर्पण PARIYARTINARTHROUPPOणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy